आधुनिकता की अटपटी अटरिया



ऊँची-ऊँची अटरिया बन रही,
नींव मगर हिल रही, हाय रे!
कंगूरे चमकते सोने जैसे,
पर नीचे कीचड़ मिल रही, हाय रे!

मॉर्डर्निटी के नाम पर भाई,
पैर कटाकर जूते पहन रहे!
संस्कारों को फेंक के ऐसे,
रॉकेट से चप्पल चला रहे!

"पश्चिम में देखा, वैसा करो!"
भाई, थोड़ा तो दिमाग लगाओ!
नींव पुरानी, मजबूत रखो,
फिर ऊँची मीनारें बनाओ!

गाँव का खटिया, चाय पियो,
फिर लैपटॉप पर काम करो!
संस्कृति की जड़ें पकड़ो पहले,
फिर चाँद पर जाके आराम करो!

कंगूरे तभी टिक पाएँगे,
जब ज़मीन की मिट्टी साथ रहे।
मॉर्डर्निटी का लड्डू खाओ,
पर परंपरा की थाली पास रहे!

— दीपक दोभाल




आधी-अधूरी आरज़ू

मैं दिखती हूँ, तू देखता है, तेरी प्यास ही मेरे श्रृंगार की राह बनती है। मैं संवरती हूँ, तू तड़पता है, तेरी तृष्णा ही मेरी पहचान गढ़ती है। मै...