ब्रह्माण्ड के विस्तार का प्रश्न एक गहन दर्शन और विज्ञान का विषय है। "ब्रह्माण्ड किसमें फैल रहा है?" यह एक ऐसा प्रश्न है जो विज्ञान की सीमाओं के साथ-साथ दर्शन और अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को भी छूता है।
ब्रह्माण्ड का विस्तार और "किसमें" का प्रश्न
आधुनिक खगोलशास्त्र यह स्पष्ट करता है कि ब्रह्माण्ड निरंतर विस्तारशील है। यह हबल के सिद्धांत और ब्रह्माण्डीय माइक्रोवेव पृष्ठभूमि (CMB) के प्रमाणों पर आधारित है। परंतु यहाँ "किसमें" का प्रश्न खड़ा होता है।
"किसमें" का तात्पर्य स्थान से होता है, और यदि स्थान ही फैल रहा है, तो यह "किसमें" फैल रहा है? इस पर गहरी दृष्टि डालने से पता चलता है कि "किसमें" का उत्तर भौतिक स्थान (space) नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्माण्ड के बाहर कोई स्थान नहीं है।
विज्ञान की परिधि में
विज्ञान के अनुसार ब्रह्माण्ड के बाहर "शून्य" या "अस्तित्वहीनता" है। परंतु यह "शून्य" क्या है? यह कोई ऐसा स्थान नहीं है जिसे हम भौतिक रूप से परिभाषित कर सकें। "शून्य" को समझने के लिए हमें भौतिक विज्ञान से परे जाना पड़ता है।
अध्यात्म और शून्य का संदर्भ
भारतीय दर्शन और वेदांत में "शून्य" और "अनंत" की अवधारणा प्राचीन काल से विद्यमान है। यहाँ "शून्य" का अर्थ केवल रिक्तता नहीं है, बल्कि वह अनंत ऊर्जा और संभावना का स्रोत है।
ऋग्वेद में कहा गया है:
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥"
(पूर्ण अर्थात अनंत से अनंत की उत्पत्ति होती है, और फिर भी अनंत शेष रहता है।)
यह श्लोक यह संकेत करता है कि ब्रह्माण्ड "पूर्ण" या "शून्य" से उत्पन्न हुआ है। यह "शून्य" ब्रह्म है, जो समय, स्थान और चेतना से परे है।
अध्यात्म और विज्ञान का संगम
वैज्ञानिक दृष्टिकोण में, ब्रह्माण्ड का विस्तार स्वयं में ही होता है। यह "स्थान-काल" (space-time) का विस्तार है। परंतु अध्यात्म कहता है कि यह सब "माया" है, जो अनंत ब्रह्म में संचालित होती है।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:
"मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।"
(मेरे अव्यक्त रूप से यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है।)
यह बताता है कि ब्रह्माण्ड का आधार भौतिक नहीं, बल्कि अदृश्य चेतना है।
"गति" और "स्थिरता" का रहस्य
विज्ञान के अनुसार ब्रह्माण्ड का विस्तार "डार्क एनर्जी" के कारण हो रहा है। लेकिन यह ऊर्जा किससे उत्पन्न हो रही है? अध्यात्म कहता है कि यह ऊर्जा "शून्य" से निकलती है, जो स्थिर होते हुए भी गतिशील है।
"किसमें" का उत्तर
अंततः "किसमें" का उत्तर भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक है। ब्रह्माण्ड किसी स्थान में नहीं, बल्कि स्वयं अपनी चेतना में विस्तार कर रहा है। यह चेतना ब्रह्म है, जो न शून्य है, न पूर्ण; न स्थिर है, न गतिशील।
ब्रह्माण्ड का विस्तार केवल भौतिक विज्ञान का विषय नहीं है। यह एक ऐसा गूढ़ रहस्य है जो अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान के संगम में सुलझता है। भारतीय दर्शन में इसे "माया" और "ब्रह्म" के खेल के रूप में देखा जाता है। "किसमें" का उत्तर खोजने के लिए हमें भौतिकता से परे जाकर चेतना के मूल को समझना होगा।
"आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्।
सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति॥"
(जैसे आकाश से गिरा जल सागर में समा जाता है, वैसे ही समस्त प्रश्नों का उत्तर ब्रह्म में मिलता है।)