कभी सोचा है क्यों हर बार "हां" कह जाते हो,
जब दिल साफ़ कहता है "ना," फिर भी झुक जाते हो।
यह जो मुस्कान ओढ़े चलते हो हर पल,
क्या यह सच में तुम्हारा मन है, या दर्द का कोई छल?
तुम्हारा "हां" किसी और का सुख है,
पर तुम्हारे भीतर एक खालीपन का दुख है।
दूसरों को खुश करने की यह आदत,
तुम्हारी आत्मा के लिए बन गई है आफत।
दूसरों के लिए रास्ते बनाते चले जाते हो,
पर अपने सपनों को किनारे पर रख आते हो।
उनकी जरूरतें तुम्हारी प्राथमिकता बन जाती हैं,
और तुम्हारी जरूरतें गुमनामी में खो जाती हैं।
यह सब क्यों? यह झुकना, यह सहना,
क्या इसलिए कि बचपन के घाव अब भी जल रहे हैं?
जब "ना" कहने पर मिली थी तिरस्कार की आग,
या प्यार के बदले मिला था सिर्फ विरोध का सैलाब।
तब सीखा था, “अच्छा बनो, सब सह लो,”
अपने दर्द को छुपाकर, दूसरों को गले लगा लो।
पर यह विनम्रता अब तुम्हारी बेड़ी बन गई है,
तुम्हारी आत्मा की आवाज कहीं खो गई है।
अब समय है खुद को सुनने का,
अपने "ना" को भी अपनाने का।
जो "हां" मजबूरी में कह रहे हो,
उस बोझ को अपने कंधों से उतारने का।
दया वही है, जो तुम्हें भी आज़ाद करे,
जो दूसरों के साथ तुम्हारे दिल को भी गले लगाए।
आसली विनम्रता वह है, जो सीमाएं जानती हो,
जो झुककर नहीं, आत्मसम्मान से चलती हो।
तो उठो, और अपने घावों को चंगा करो,
"ना" कहने की कला को जीवन में बसा लो।
दूसरों की खुशी में अपनी पहचान मत खोना,
अपने आत्मा के साथ सच्चा रिश्ता संजोना।