2015 की कलम की क्रांति



जब लेखकों ने लौटाए पुरस्कार और विचारधाराएँ आमने-सामने आईं

लेखक: दीपक दोभाल


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"कभी-कभी एक कलम, एक तख्ती और एक चुप्पी इतिहास की सबसे ऊँची आवाज़ बन जाती है।"

2015 का वर्ष भारतीय साहित्य, संस्कृति और राजनीति के लिए एक ऐसा साल बन गया जिसने विचारों की लड़ाई को लेखनी के माध्यम से मुख्यधारा में ला खड़ा किया। यह वह समय था जब देश भर के साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और कलाकारों ने एक असामान्य कदम उठाया — साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर अपने विरोध को दर्ज करना। परंतु यह विरोध केवल सत्ता या संस्थानों के खिलाफ़ नहीं था, बल्कि एक वैचारिक द्वंद्व की शुरुआत थी, जो आने वाले वर्षों में भारत के सामाजिक विमर्श का केंद्र बन गई।


आक्रोश की शुरुआत: दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्याएँ

इस विरोध की पृष्ठभूमि में कुछ गंभीर घटनाएं थीं — तर्कवादी लेखक और समाज सुधारक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एम.एम. कलबुर्गी की हत्याएँ। इन हत्याओं ने साहित्यिक और बौद्धिक समुदाय को झकझोर दिया। कलबुर्गी स्वयं एक साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता थे, और उनकी हत्या के बाद साहित्य अकादमी की चुप्पी को कई लेखकों ने अस्वीकार कर दिया।


साहित्यकारों का प्रतिरोध: पुरस्कार वापसी की लहर

सितंबर 2015 में शुरू हुआ यह आंदोलन देखते ही देखते एक राष्ट्रीय विमर्श बन गया। 40 से अधिक साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटाकर 'बढ़ती असहिष्णुता' और 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरे' के खिलाफ़ विरोध जताया।
प्रख्यात लेखक उदय प्रकाश सबसे पहले थे, जिनके इस कदम के बाद नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, केंसरलाल, मुनव्वर राणा, और कई अन्य नामचीन साहित्यकारों ने भी अपना विरोध दर्ज कराया।

उनका कहना था कि यह केवल पुरस्कार लौटाना नहीं है, बल्कि यह एक नैतिक प्रतिरोध है — उस खामोशी के खिलाफ़ जो सत्ता और संस्थागत ढांचे ने कथित रूप से ओढ़ रखी थी।


विचारधाराओं की टकराहट: असहमति और अस्वीकार का दूसरा पक्ष

जैसे-जैसे पुरस्कार लौटाने की खबरें अखबारों की सुर्खियाँ बनने लगीं, एक समानांतर विचारधारा भी सामने आई।
लेखकों और कलाकारों के इस विरोध को राजनीतिक रंग देने की कोशिशें तेज़ हो गईं।
कई लोगों ने इस आंदोलन को एक पूर्वनियोजित 'लिबरल गठजोड़' कहा, जिसका उद्देश्य केवल एक विशेष सरकार और विचारधारा को बदनाम करना था।

कुछ लेखकों ने सवाल उठाए:
"क्यों दाभोलकर और पानसरे की हत्या पर UPA शासन में यह विरोध नहीं हुआ?"
"क्या पुरस्कार लौटाने की यह मुहिम स्वतःस्फूर्त है या यह एक वैचारिक राजनीति का हिस्सा है?"

लेखक नरेंद्र कोहली, मधु पूर्णिमा किश्वर, और कई अन्य लेखकों ने इस पुरस्कार वापसी को ‘छद्म बौद्धिकता’ और ‘सेलेक्टिव एक्टिविज़्म’ कहा। उनका कहना था कि साहित्य को राजनीति से दूर रहना चाहिए और ऐसी कार्रवाइयाँ साहित्य की विश्वसनीयता को कमज़ोर करती हैं।

सत्ता की प्रतिक्रिया: संवाद या संदेह?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरुआत में इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी, पर जब यह आंदोलन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी चर्चा का विषय बन गया, तो उन्होंने कहा कि "भारत एक सहिष्णु देश है और रहेगा।"
सरकार के कई मंत्रियों ने इसे एक प्रायोजित आंदोलन करार दिया। वहीं, बीजेपी समर्थकों ने इसे 'बौद्धिक आतंकवाद' जैसा जुमला तक दे डाला।

विचार और विरोध के बीच फंसी साहित्य अकादमी

साहित्य अकादमी एक प्रतिष्ठित सांस्कृतिक संस्था है, जो स्वतंत्र रूप से कार्य करती है। लेकिन इस पूरे प्रकरण में अकादमी पर "केंद्र सरकार के दबाव में चुप्पी साधने" के आरोप लगे।
अंततः साहित्य अकादमी ने कलबुर्गी की हत्या की निंदा की और "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा" का संकल्प दोहराया — लेकिन तब तक बहुत से लेखक पुरस्कार लौटा चुके थे।

यह विरोध क्या था: साहित्य का आत्मसम्मान या राजनीति का हस्तक्षेप?

इस सवाल का जवाब सीधा नहीं है। एक ओर लेखकों की आत्मा में वह पीड़ा थी जो असहिष्णुता, मॉब लिंचिंग, और विचारशील हत्या की घटनाओं से उपजी थी।
वहीं दूसरी ओर, इसका विरोध भी हुआ कि क्या हर असहमति को पुरस्कार लौटाकर दर्ज किया जाना चाहिए?
क्या लेखकों की भूमिका केवल प्रतिरोध करना है या उन्हें समाधान की ओर भी देखना चाहिए?

विचारधाराओं की टकराहट: समर्थन और विरोध

इस आंदोलन को लेकर साहित्यिक समुदाय में दो विचारधाराएँ उभरीं:

1. समर्थनकर्ता: इनका मानना था कि यह आंदोलन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता की रक्षा के लिए आवश्यक था। उन्होंने साहित्य अकादमी की चुप्पी और सरकार की निष्क्रियता पर सवाल उठाए।


2. विरोधकर्ता: कुछ लोगों ने इस आंदोलन को राजनीतिक प्रेरित बताया। उनका कहना था कि यह एक पक्षपाती विरोध है, जो केवल एक विशेष विचारधारा के खिलाफ़ है। उन्होंने इसे 'चुनिंदा आक्रोश' और 'बौद्धिक आतंकवाद' जैसे शब्दों से संबोधित किया।

 साहित्य अकादमी और सरकार की प्रतिक्रिया

साहित्य अकादमी ने प्रारंभ में इस आंदोलन पर कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं दी, जिससे लेखकों में असंतोष बढ़ा। बाद में, अकादमी ने 23 अक्टूबर और 12 दिसंबर 2015 को विशेष कार्यकारिणी बैठकें आयोजित कीं, जिसमें लेखकों से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया गया। सरकार की ओर से भी इस आंदोलन को राजनीतिक बताया गया और इसे विकास एजेंडा को पटरी से उतारने की कोशिश करार दिया गया।


लेखक का दृष्टिकोण: मेरी कलम की बात

मैं एक लेखक और कवि होने के नाते, इस आंदोलन को एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक जागरण के रूप में देखता हूँ। यह आंदोलन हमें यह याद दिलाता है कि साहित्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है, बल्कि यह समाज का दर्पण और परिवर्तन का उपकरण भी है। जब समाज में असहिष्णुता बढ़ती है, तो लेखकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपनी कलम से उसका विरोध करें।


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🖋️ मेरी ओर से एक शायरी

जब शब्दों पर पहरे लगने लगे,

और विचारों की उड़ान थमने लगे,

तब कलम ने विद्रोह किया,

साहित्य ने प्रतिरोध किया।


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निष्कर्ष: 2015 का साहित्यिक विद्रोह – इतिहास में दर्ज़ एक बौद्धिक उबाल

2015 का यह ‘पुरस्कार वापसी आंदोलन’ भारत के बौद्धिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ रहा। इसने यह साफ कर दिया कि लेखक सिर्फ किताबों के शब्द नहीं होते, वे समय की चेतना भी होते हैं।
लेकिन साथ ही यह भी प्रमाणित हुआ कि विचारों की लड़ाई में भी विचारशीलता जरूरी होती है।

किसी भी लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि विरोध की आवाज़ें सुनी जाएँ — चाहे वे पुरस्कार लौटाने से उठें या उस वापसी के खिलाफ़ खड़े होने वालों से।

क्योंकि जब कलम दोनों तरफ चलती है, तभी समाज संतुलित रह सकता है।


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