क्या नाम हमारा यही, जो जग ने हमको दे डाला?
किस जाति, धर्म, वर्ण में, इस जन्म में क्यों बंध डाला?
स्मरण करो उस क्षण को, जब आँखें पहली बार खुलीं,
क्या पहचान थी अपनी तब, क्या तब कोई सीमा लगी?
मूल स्वरूप का प्रश्न
न जाति थी, न धर्म था, न कोई भिन्नता का नाम,
सिर्फ शुद्ध आत्मा थी वह, बस अस्तित्व का अविराम।
संस्कृति, समाज, जातियाँ, ये सब हैं भ्रम के तंतु,
परम सत्य की खोज में ये, कितनी रुकावटें बुनते।
संस्कारों का भार
संस्कारों का बोझ लाद कर, जीवन में हम चल पड़ते,
पर हर कदम पर स्वयं से दूर, हम खुद को ही छलते।
"अहं ब्रह्मास्मि," का उद्घोष तो करते हैं अधरों से,
पर वास्तव में नहीं समझते, सत्य छुपा जो अंतर में।
परिवर्तन का आह्वान
हे मानव! अब तुम जागो, अपनी सच्ची पहचान को जानो,
मोह-माया के बंधन तोड़, आत्मा का अमर स्वाभाव पहचानो।
"नमः शिवाय," में खो जाओ, अपने मूल में जो मिल जाए,
हर भ्रम, हर परिचय, हर जाति, सत्य में घुल जाए।
शुद्ध चेतना का मार्ग
"तत्त्वमसि," वह सत्य है, जो भीतर हर प्राणी में वास,
ना कोई भेद, ना कोई द्वेष, यह आत्मा की है आवाज।
सभी देह का भेद मिटाकर, मन में एकता भर ले तू,
एक अंश है परमात्मा का, तू इस सत्य को समझ ले तू।
समर्पण और समाधि
अंत में यह समझो, कि हर नाम, रूप, जाति के बंधन,
मात्र क्षणिक हैं, और तुम्हें ले जाते हैं मोह-माया के बंधन।
असली मुक्ति तब मिलेगी, जब आत्मा का सच पहचाने,
प्रेम और करुणा में डूबे, हर जीव में ईश्वर पहचाने।
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इस कविता का संदेश यही है कि हमारा असली स्वरूप किसी नाम, जाति, धर्म से परे है। हमें आत्मज्ञान की ओर बढ़ना चाहिए और उस शुद्ध चेतना को पहचानना चाहिए जो जन्म से ही हमारे भीतर है।