मैं जानता था…
कहीं गहराई में,
बहुत गहराई में,
एक धीमी सी आवाज़ थी
जो कह रही थी —
"रुक जा। मत कर। यह तेरे लिए नहीं है।"
पर मैं नहीं रुका।
मैंने भीड़ की बातें सुनी,
बाहर के तर्क,
दूसरों के अनुभव,
और अपने डर के भीतर की चुप्पी को
"समझदारी" समझ बैठा।
अब जब लौटकर देखता हूँ —
कुछ टूटा नहीं बाहर,
पर भीतर कुछ मर गया।
मुझे किसी और से नहीं,
खुद से शिकायत है।
क्यों नहीं सुना मैंने अपनी ही अंतरात्मा को?
क्यों दबा दी उस आवाज़ को
जो सबसे सच्ची थी,
सबसे साफ़ थी —
और फिर भी सबसे अनसुनी रही?
अब कोई दोषी नहीं है मेरे जीवन में…
ना हालात, ना लोग,
सिर्फ़ मैं।
और यही सबसे भारी बोझ है —
खुद से नाराज़गी।
एक चुप-सी नाराज़गी
जो कहती है —
"तू जानता था, फिर भी क्यों?"
और उस "क्यों" का कोई जवाब नहीं है मेरे पास,
सिवाय इस गहरे पछतावे के
जो हर रोज़
मेरी चुप्पी से टकराता है।
मैं हँसता हूँ,
लोग समझते हैं सब ठीक है…
पर एक हिस्सा अब भी बैठा है भीतर,
वो हिस्सा जो बस चाहता है
कि मैं एक बार उसे सुन लेता।
अब जो बचा है,
वो है समझ।
अब जो उगा है,
वो है संकल्प —
कि अगली बार…
जब वो धीमी सी आवाज़ फुसफुसाए,
मैं रुकूँगा…
मैं सुनूँगा…
क्योंकि अब मुझे पता है —
कि ख़ामोशी में भी कभी-कभी
भगवान बोलते हैं।
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