जो एक दिन मुझे तोड़कर, दूसरे दिन मुस्काते हैं।
वो कहते हैं, “कुछ नहीं हुआ”, जैसे कुछ बदला ही नहीं,
पर कल का ज़ख्म, दिल में गहरा जाता है कहीं।
कल जो तूने किया, वह क्यों भूल जाते हो,
क्या वो दर्द मेरे दिल से मिट जाते हो?
जैसे कुछ हुआ ही नहीं, जैसे कोई कसूर नहीं,
क्या सच में कभी उस दर्द को महसूस नहीं?
क्या कभी उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है?
हमेशा वही कठोरता, वही चुप्पी का चुपके से खेल,
क्या उनका दिल कभी नहीं समझता यह मेल?
कभी कभी मुझे लगता है, क्या यही सच है जीवन का,
जहाँ ग़लतियाँ छुपाई जाती हैं, और सच्चाई रहती है सन्नाटा?
कहाँ है वो सच्ची माफी, वो दिल से निकली भावना,
जो सच्चे प्यार और सम्मान से जुड़ी हो, बिना किसी बहाना?
लेकिन अब मैं जानता हूं, हर ग़लती को स्वीकार करना चाहिए,
मुझे खुद से समझौता नहीं करना चाहिए।
जो मुझे दुख पहुंचाए, मैं उनसे दूरी बनाता हूं,
क्योंकि माफी बिना समझे, कोई सच्चाई नहीं पाता हूं।