मुस्कान की असल जगह

 “मैं” रूप में

तस्वीरों में जो मुस्कानें थीं,
वो तस्वीर में नहीं थीं।
वो थीं उस पल में —
जिसे दुनिया ने अब छीन लिया है।

उस वक़्त मुझे नहीं आता था
कैमरे के सामने मुस्कुराना,
मगर फिर भी हँसता था
जैसे पूरी दुनिया मेरी हो।

वो हँसी सिखाई नहीं गई थी,
ना सीखी थी मैंने किसी आईने से।
वो आई थी —
क्योंकि दिल हल्का था,
ज़िंदगी सीधी थी,
और मैं… अब भी सच्चा था।

अब जब तस्वीर अच्छी आती है,
मुस्कान फिर भी अधूरी लगती है।
क्योंकि ख़ूबसूरती
कभी कैमरे में नहीं थी —
वो तो उस मासूम पल में थी,
जिसे हमने खो दिया…
बड़े हो जाने की दौड़ में।


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