वासना का अस्तित्व और उसकी समाप्ति हमारे मनोविज्ञान और आत्मविकास का महत्वपूर्ण विषय है। वासना की प्रकृति ऐसी है कि यह तात्कालिक होती है और जैसे ही किसी वस्तु या व्यक्ति को पाने की इच्छा पूर्ण होती है, उसका आकर्षण घटने लगता है। वासना को समझना और उसे नियंत्रित करना आत्मविकास का मार्ग खोलता है। संस्कृत शास्त्रों में इस विषय पर गहराई से चर्चा की गई है, जो हमें वासना को साधने के मार्ग में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
वासना की प्रवृत्ति
वासना की विशेषता यह है कि यह एक ऐसी ऊर्जा है जो किसी लक्ष्य को पाने की ओर बढ़ती है। जैसे ही वह लक्ष्य प्राप्त होता है, ऊर्जा का उत्साह समाप्त हो जाता है। इस प्रवृत्ति को समझने के लिए भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
> "ध्यानात् विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते।।"
(भगवद्गीता 2.62)
अर्थात, विषयों का ध्यान करते रहने से उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से वासना उत्पन्न होती है, और वासना से क्रोध की उत्पत्ति होती है। यहाँ श्रीकृष्ण वासना को चेतना का एक ऐसा पहलू बताते हैं, जो अंततः नकारात्मक प्रभावों की ओर ले जाता है, यदि इसका सही रूप में प्रबंधन न किया जाए।
वासना का चरित्र बढ़ने और घटने वाला है। जब तक प्राप्ति नहीं होती, वासना का उबाल बढ़ता रहता है। जैसे ही वांछित वस्तु प्राप्त होती है, वासना शांत होती है, और कभी-कभी अगले आकर्षण की ओर बढ़ जाती है। इस प्रवृत्ति को समझते हुए ओशो ने कहा कि "वासना का असली स्वभाव अधूरापन है।"
वासना की उत्पत्ति का कारण
वासना का जन्म मनुष्य की अधूरी इच्छाओं से होता है। यह हमारे मन और विचारों की एक अवस्था है, जिसमें हमें लगता है कि किसी बाहरी वस्तु की प्राप्ति से ही हमारी पूर्णता होगी। यह एक भ्रम है, जिसे संतोष और आंतरिक सुख के माध्यम से समझा जा सकता है। वासना का स्वभाव केवल तब तक सक्रिय रहता है, जब तक हमें वह वस्तु प्राप्त नहीं होती।
> "असन्तोषो हि कामानां विकारः प्रथमः स्मृतः।"
(मनुस्मृति 7.45)
अर्थात, असंतोष ही कामनाओं का पहला विकार है। यह असंतोष ही मनुष्य को अधूरेपन का अहसास कराता है, जिससे उसकी वासना की उत्पत्ति होती है। यही असंतोष उसे बाहर की वस्तुओं और लोगों में खुशी खोजने के लिए प्रेरित करता है, परन्तु यह एक अंतहीन चक्र है।
वासना पर नियंत्रण कैसे करें
वासना पर विजय पाने के लिए आत्म-निरीक्षण और ध्यान को महत्वपूर्ण माना गया है। आत्म-निरीक्षण से मनुष्य अपने भीतर की अधूरी इच्छाओं और असंतोष के कारणों को समझ सकता है।
> "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।"
(अष्टावक्र गीता 1.11)
अर्थात, मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है। यदि मन शांत हो, तो वासना स्वतः ही समाप्त हो जाती है। वासना की वास्तविकता को जानकर मनुष्य धीरे-धीरे उसे अपने नियंत्रण में कर सकता है।
ध्यान और आत्म-निरीक्षण: ध्यान वासना को नियंत्रित करने का एक प्रभावी तरीका है। जब हम ध्यान करते हैं, तो हमारे मन में उत्पन्न होने वाली इच्छाएँ और वासनाएँ धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं। ध्यान का उद्देश्य यह नहीं है कि हम अपनी वासनाओं को दबा दें, बल्कि उन्हें स्वाभाविक रूप से समाप्त कर दें। ध्यान के माध्यम से हम अपने मन को स्थिर कर सकते हैं और उन इच्छाओं से मुक्ति पा सकते हैं जो हमारे शांति और संतोष में बाधा डालती हैं।
> "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।"
(योगसूत्र 1.2)
अर्थात, योग मन की वृत्तियों का निरोध है। जब मन शांत और स्थिर हो जाता है, तब इच्छाएँ, जो वासना का मूल कारण हैं, अपने आप समाप्त हो जाती हैं।
वासना और प्रेम का अंतर
वासना का सम्बन्ध केवल स्वार्थ से है, जबकि प्रेम नि:स्वार्थ होता है। वासना प्राप्ति और भोग पर केंद्रित होती है, जबकि प्रेम समर्पण और त्याग का प्रतीक है। प्रेम में व्यक्ति की संतुष्टि दूसरों के सुख में होती है, जबकि वासना में सुख की खोज केवल स्वयं के लिए होती है।
> "काम एव सदा कर्तुं रागं कुरुते जन्तुषु।"
वासना केवल स्वार्थ में लिप्त रहती है, जबकि प्रेम त्याग और सेवा में संतोष पाता है। प्रेम में आनंद की अनुभूति होती है, जबकि वासना में प्यास और बेचैनी।
वासना को समझना और उस पर विजय पाना हर साधक के जीवन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है। वासना का समाधान केवल आत्म-निरीक्षण, ध्यान, और योग से संभव है। जब हम अपने भीतर संतोष और प्रेम की खोज करते हैं, तो बाहरी आकर्षण स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं, और हम आंतरिक शांति को प्राप्त करते हैं। वासना का अंत ही सच्चे आनंद और मुक्ति का मार्ग है।
अतः, वासना की अनन्त प्यास को शांत करने का एकमात्र उपाय है आत्म-निरीक्षण, क्योंकि उसी से सच्चे संतोष का अनुभव किया जा सकता है।