संसार की सृष्टि में देखने वाले हम लोगों को अक्सर यह भूल जाते हैं कि सभी वस्तुएं, चाहे वे जीवित हों या अजीव, परमात्मा के सृष्टि के अंश हैं। इसलिए, जीव और अजीव के बीच कोई असमानता नहीं होती।
प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में, 'पुरुष' शब्द का उपयोग हमें यह शिक्षा देता है कि सभी प्राणी एकता में जुड़े हुए हैं। प्रश्न उपनिषद् में मिलने वाला यह विचार अब्सोलूट एकता को साबित करता है।
उपनिषद में कहा गया है:
**स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथ्वीवीन्द्रियं मनः अन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्मलोका लोकेषु च नाम च।।**
इस श्लोक में विश्व के सृष्टि में जो सम्पूर्ण तत्व हैं, उनकी उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। प्राण से ही श्रद्धा उत्पन्न होती है, फिर आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, इंद्रिय, मन, अन्न, और अन्न से ही ऊर्जा, सम्मान, मन्त्र, कर्म, लोक, और लोकों में नाम की उत्पत्ति होती है।
इस श्लोक की व्याख्या में, श्री आदि शंकराचार्य ने प्राण का अर्थ हिरण्यगर्भ बताया है, जो सभी प्राणों का संग्रह है और सभी के आंतरिक जीवन का स्रोत है। इससे समस्त मानसिक और भौतिक तत्व उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार, यह श्लोक हमें सृष्टि में एकता का संदेश देता है और हमें यह याद दिलाता है कि हम सभी एक ही परमात्मा के अंश हैं और इसलिए हमें एक-दूसरे के साथ सम्मानपूर्वक और भाईचारे में रहना चाहिए।