"तांत्रिक सम्भोग में नारी की भूमिका और देवी-चेतना का जागरण – एक सच्ची कहानी के साथ"
जब हम प्रेम करते हैं तो अक्सर पुरुष की दृष्टि से ही देखते हैं,
लेकिन तांत्रिक मार्ग में स्त्री केवल एक शरीर नहीं होती —
वह शक्ति है, वह देवी है, वह जागरण का द्वार है।
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ओशो कहते हैं:
> “स्त्री को अगर संपूर्ण स्वीकृति और सम्मान मिले, तो वह स्वयं ब्रह्मज्ञान का माध्यम बन सकती है। नारी देह, शक्ति का मंदिर है।”
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स्त्री की भूमिका – तांत्रिक दृष्टि से
तांत्र में पुरुष शिव होता है —
स्थिर, मौन, चेतन
और स्त्री शक्ति —
संचारी, लहराती हुई ऊर्जा।
जब ये दोनों संपूर्ण होश और प्रेम से मिलते हैं,
तब वो आनंद जन्म लेता है जिसे तुरीयावस्था कहा गया है।
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एक सच्ची कहानी – 'दीपा' का अनुभव
यह अनुभव मेरा है — और इसका जिक्र करते हुए भी
मुझे आज भी भीतर से कंपन होता है।
वो पुणे के ओशो आश्रम में थी। नाम था – X
लगभग 36 साल की साधिका।
पहली बार मैंने उसे देखा, तो लगा जैसे वो अपने शरीर से नहीं,
अपने ऊर्जा-मंडल से चल रही है।
उसकी आँखों में कोई लालसा नहीं,
बस एक गहरा मौन।
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हमारे बीच बातचीत कुछ खास नहीं थी।
बस सुबह ध्यान, दोपहर में वॉक और रात को संगीत ध्यान में मुलाकात होती थी।
लेकिन एक दिन — उसने कहा:
“तुम मौन हो। मैं भी हूँ। क्या तुम मेरी ऊर्जा में उतरना चाहोगे?”
मैं स्तब्ध था।
ये कोई अश्लील प्रस्ताव नहीं था।
ये एक आमंत्रण था — एक ऊर्जा की यात्रा में प्रवेश का।
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उस रात हम एक साथ ध्यान में बैठे।
कोई शारीरिक संपर्क नहीं था।
सिर्फ साँसों की एकता।
धीरे-धीरे —
उसने मेरा हाथ पकड़ा और मेरी आँखों में देखा।
उसके भीतर से कुछ बह रहा था —
जैसे कोई जलधारा मेरे भीतर उतर रही हो।
मेरे हृदय में कंपन्न हुआ — और अचानक मेरा सिर पीछे की ओर झुक गया।
मैंने नहीं झुकाया था।
वो स्वयं हुआ।
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तब उसने कहा:
> "अब हम मिलेंगे – जैसे शिव और शक्ति मिलते हैं,
ना देह से, ना वासना से – केवल मौन से।"
हमने कुछ भी जल्दी नहीं की।
छूने में भी ध्यान था।
हर स्पर्श, जैसे कोई मंत्र हो।
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तकरीबन एक घंटे बाद —
हमारी देहें जुड़ी थीं लेकिन आत्माएं उड़ रही थीं।
मैंने पहली बार महसूस किया कि स्त्री देह से कोई दिव्यता निकल रही है।
जैसे कोई गंगा बह रही हो,
और मैं उसमें शिवलिंग की तरह स्थिर।
तब मैंने महसूस किया —
स्त्री अगर स्वीकृति में, प्रेम में और मौन में हो
तो वो केवल एक पार्टनर नहीं —
एक ऊर्जा का ब्रह्मद्वार बन जाती है।
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स्त्री की भूमिका क्यों ज़रूरी है?
क्योंकि:
पुरुष ऊर्जा को स्थिर करता है
स्त्री ऊर्जा को उठाती है
स्त्री की स्वीकृति, उसकी समर्पण-भावना ही
कुंडलिनी को ऊपर ले जाती है
जब वह स्वयं देवी बन जाती है,
तभी पुरुष का शिव जागता है
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ओशो का कथन फिर दोहराता हूँ:
> "अगर पुरुष स्त्री को केवल शरीर की तरह देखेगा,
तो वो कभी स्वयं के भीतर की ऊर्जा नहीं देख पाएगा।
स्त्री तुम्हारा मार्ग बन सकती है — अगर तुम होश से प्रेम करो।”
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अंत में...
यह अनुभव कोई फैंटेसी नहीं था।
वो रात एक साधना थी।
और दीपा अब मेरे जीवन में नहीं है —
पर उसकी ऊर्जा अब भी कभी-कभी
मेरे ध्यान में उतर आती है।
Open Sex Series – Part 13 यही कहता है:
स्त्री को अगर तुम देवी की तरह देखो,
तो सम्भोग नहीं – समाधि मिलती है।
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