अगर एक पल को मान लूँ,
कि मैं अपने शरीर से खुश हूँ,
कि आईना मुस्कुराए,
और उसमें मेरी तस्वीर मुझे गले लगाए।
न शिकवे हों, न ताने,
न कमियों की गिनती, न बहाने।
बस मैं हूँ, और मेरा होना,
हर अंग का अद्भुत सा बिछौना।
ये झुर्रियाँ, ये निशान,
जीवन की कहानियाँ बयान।
ये कमर का झुकाव, ये बालों की सफ़ेदी,
सब मेरी यात्रा के नक्शे हैं, मेरी संपत्ति।
कैसा लगेगा, अगर मैं मान लूँ,
कि जो हूँ, वही संपूर्ण हूँ?
नहीं चाहिए परफेक्शन का नकाब,
बस अपने वजूद पर हो गर्व बेहिसाब।
शायद तब, हर साँस हल्की हो जाए,
हर कदम नृत्य बन जाए।
क्योंकि मैं और मेरा शरीर,
साथ चलें, बिना किसी तकलीफ़ के भीर।