मैंने बहुतों को साथी कहा,
बहुतों संग जीवन की राह चली,
कुछ मुस्कानों में सच्चाई थी,
कुछ आँखों में माया की जलधि पली।
हर कोई मित्र नहीं होता,
मैंने ये बात देर से जानी,
हर मुस्कराहट के नीचे
कोई न कोई स्वार्थ की कहानी।
मैं भी कभी झूठी उम्मीदों से जुड़ा,
कभी प्रेम के नाम पर भ्रम में पड़ा,
पर एक दिन भीतर से स्वर आया—
“मित्रता वो है, जहाँ कोई छल न हो साया।”
सच्चा मित्र?
वो जो दर्पण की तरह हो—
न रंग बदले, न दृष्टि झुकाए,
न तारीफ़ों की चाह रखे,
न आलोचनाओं से घबराए।
मैंने उस दिन पहली बार
अपने भीतर झाँकना शुरू किया,
क्या मैं भी किसी का सच्चा मित्र हूँ?
या केवल अपने सुख का ही पिया?
मित्रता के फूल तो सच में दुर्लभ हैं,
उगते हैं तप की भूमि पर,
जहाँ दो आत्माएँ निर्विकार मिलें,
जहाँ न लोभ हो, न कोई व्यापार।
जहाँ मैं तुझे तेरे ही लिए चाहूँ,
तेरे दुःख में मौन बन सकूँ,
तेरी ख़ुशी में ईर्ष्या से नहीं,
प्रेम से आँखें नम कर सकूँ।
जहाँ कोई हिसाब न हो दिलों का,
न तौल हो लम्हों की,
जहाँ संबंध बोझ न बने,
बल्कि पंख बन जाएँ उमंगों की।
माया तो हर क्षण बहलाती है,
कभी पहचान में, कभी उपेक्षा में,
पर मित्रता उससे परे की यात्रा है,
एक प्रकाश, जो जलता है अंधकार में।
मैं अब भी उस मित्र को खोजता हूँ,
या शायद, अब स्वयं वैसा बनने चला हूँ,
जिसे देख कोई कहे—
“देखो, ये है वो व्यक्ति,
जो बिना माया के प्रेम करता है...!”
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