भगवद गीता, एक ऐसा ग्रंथ है जो सदियों से केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक अद्वितीय दर्शन और आत्मिक ज्ञान का स्रोत रहा है। इसका गूढ़तम ज्ञान वैज्ञानिकों और दार्शनिकों को भी प्रेरणा प्रदान करता रहा है। आधुनिक काल के वैज्ञानिकों में भी भगवद गीता के प्रति असीम आदर देखा गया है।
प्रसिद्ध भौतिकविद रॉबर्ट ओपेनहाइमर, जिन्होंने परमाणु बम की खोज में अग्रणी भूमिका निभाई, ने भगवद गीता को “सर्वाधिक सुंदर दार्शनिक गीत” कहा। उनके अनुसार, यह ग्रंथ मानवीय चेतना को इतना गहनता से प्रभावित कर सकता है कि किसी भी प्रकार की जीवन के प्रति दृष्टिकोण को यह बदल सकता है। यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि गीता केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह मानव अस्तित्व के हर पहलू को स्पर्श करने वाला ज्ञान भी है।
भगवद गीता का विज्ञान और वैज्ञानिकों पर प्रभाव
अर्विन श्रेडिंगर का कहना था, "भगवद गीता... किसी भी ज्ञात भाषा में सबसे सुंदर दार्शनिक गीत है।" इस वक्तव्य से यह स्पष्ट होता है कि वैज्ञानिक भी गीता के दर्शन से आकर्षित हुए हैं। श्रेडिंगर का क्वांटम मैकेनिक्स का सिद्धांत भी एक प्रकार से गीता के उस सिद्धांत से मेल खाता है जहाँ वह ‘अनेकता में एकता’ की बात करती है।
कार्ल सागन का विचार था कि हिंदू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो यह मानता है कि ब्रह्मांड स्वयं अनगिनत बार जन्म और मृत्यु का अनुभव करता है। गीता में, ‘कृत्तेवासु’ का सिद्धांत बार-बार पुनर्जन्म के विचार को स्पष्ट करता है। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ब्रह्मांड के "बिग बैंग" और "बिग क्रंच" सिद्धांत के समान प्रतीत होता है।
निकोल टेस्ला भी गीता के उस सिद्धांत से प्रभावित थे जो कि “आकाश” और “प्राण” के विषय में बताता है। उनके अनुसार, “संपूर्ण दृश्य पदार्थ एक मूल तत्व से उत्पन्न होता है जो असीम और अवर्णनीय है और जिसे प्राण या सृजनात्मक शक्ति क्रियाशील बनाती है।” यह गीता के तत्त्वज्ञान में वर्णित "अव्यक्त" या "अक्षर" से मेल खाता है।
गीता का तत्वदर्शन और उसका वैज्ञानिक आधार
गीता का सार केवल दार्शनिक नहीं है; इसमें वैज्ञानिक आधार पर भी विचार किया गया है। यह कहती है कि संपूर्ण ब्रह्मांड में जो कुछ भी दिखाई देता है, वह एक ही तत्व की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:
> "ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।"
(गीता 15.7)
"इस संसार में जीवात्मा मेरे ही सनातन अंश का एक अंश है।"
यह सिद्धांत आत्मा की एकता को दर्शाता है, जो भौतिकवाद और चेतनावाद के मिश्रण को संतुलित करता है।
धार्मिकता, आत्मा और विज्ञान का मिश्रण
गीता में बताया गया है कि आत्मा शाश्वत है और शरीर नाशवान। श्रीकृष्ण कहते हैं:
> "वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।"
(गीता 2.22)
"जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है।"
यह बात आधुनिक पुनर्जन्म के सिद्धांत के समान प्रतीत होती है, जो कि आत्मा के शाश्वत अस्तित्व को स्वीकार करता है।
संस्कृति का संरक्षण और गीता का महत्व
आज की शिक्षा पद्धति में हम अपने धार्मिक ग्रंथों से दूर होते जा रहे हैं। संविधान में हिंदुओं के धार्मिक एवं शैक्षणिक संस्थानों के संचालन पर भी कई प्रकार की बाधाएँ हैं। इसके कारण गीता और अन्य धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा में कमी आई है, जिससे संस्कृति का पतन हो रहा है।
गीता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि पांच हजार वर्ष पहले थी। यह हमें सिखाती है कि जीवन में संतुलन बनाए रखें और सदैव कर्तव्य के पथ पर चलें।
> "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
(गीता 2.47)
"तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं।"
यह श्लोक हमें निरंतर कर्मशील रहने का संदेश देता है, जो आज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी मेल खाता है।
गीता का संदेश और निष्कर्ष
अंततः, गीता न केवल धार्मिक ग्रंथ है बल्कि यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, दर्शन और आध्यात्मिकता का संगम है। इसे समझना और अपनाना न केवल भारतीय संस्कृति की रक्षा करेगा बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी होगा।