जब अहंकार ने डाली झलक,
मानव ने कहा, "मैं हूँ अलग।
मैं जो हूं, वो जानो सब,
मेरा नाम, मेरी पहचान, यही है रब।"
पर यह कैसा माया-जाल,
नाम-रूप का बुनता ख्याल।
गांव, जाति, घर का पता,
इनसे क्या सच्चाई का वास्ता?
साधु कहे, "तुम कौन हो, बताओ,
नीम का पेड़ तुम्हारे घर के पास है, ये सुनकर चमत्कृत हो जाओ।
पर सोचो, पेड़ क्या तुम्हारी पहचान है,
या यह भी बस संसार का भ्रम-जाल है?"
ध्यान दो, आत्मा को न कुछ चाहिए, न मांग,
वो तो बहती नदी है, बिन किसी संग्राम।
पर अहंकार, वह चाहता पहचान,
दूसरों की नजर में बनना महान।
अहंकार कहे, "देखो मुझे, जानो मेरा नाम,
मेरे बिना अधूरी है यह सृष्टि तमाम।
हर आंख मेरी ओर उठे, हर जुबां मेरा गुण गाए,
सारी दुनिया मेरे चरणों में झुके, यह मन चाहा पाए।"
पर आत्मा तो मौन है, स्थिर है शांत,
वह न मांगती ध्यान, न चाहती कोई संत।
उसकी राह तो निर्विचार की ओर है,
जहां न कोई पहचान, न कोई शोर है।
जादूगर ने सीखी कला,
मन पढ़ने की, पर वह भी चला।
सच्चा साधक वो है जो ये समझे,
कि जीवन सत्य में बसे, भ्रम को झंझे।
जो प्रभावित करना चाहे, वो अभी है अधूरा,
उसके मन में है अहंकार का सूरा।
पर जिसने पाया खुद को, वो मौन में बसा,
वो किसी का ध्यान न चाहे, न किसी से फंसा।
आओ, इस अहंकार के जाल को तोड़ें,
सत्य की ओर बढ़ें, जहां विचार न झोड़ें।
जहां कोई न देखे, न कोई पहचाने,
वहीं सच्चा आत्म-ज्ञान पाने।
नाम, रूप, गांव सब हैं जल की लकीर,
ये संसार का खेल, क्षणभंगुर अधीर।
जो इससे परे देखे, वही है ज्ञानी,
जो स्वयं में स्थिर, वही है सच्चा सानी।
अहंकार जब छूटे, ध्यान जब ठहरे,
सत्य का सूरज भीतर उगने लगे।
तो चलो उस राह पर, जो मौन की ओर है,
जहां आत्मा अमर, और शांति का छोर है।