मैं और मेरी नग्नता - 2




मैंने पूछा प्रश्न यह, गुरु से कर के प्यार।
नग्न शरीर की कौन सी, है तंत्रों में धार?॥


गुरु बोले—घंटी सुन ध्यान लगा ले मन,
नग्न नहीं जो आँख से देखे हर कोई जन।
नग्न वही जो त्याग दे, आवरण की माया,
रहे सहज, चाहे हो, साँझ हो या छाया।।

मैंने विचारा कि वस्त्रों में क्या छिपा है?
मन के विकारों का ही तो ये धरा है।
नेत्रों से देखा जो नग्न वह नहीं है,
भीतर जो झाँके वही दृष्टा सही है।।


ढका हुआ हर रूप भी, जागे मन के वेग,
कल्पना की अग्नि में, बहता फिर अनेग।॥

भैरवी को देख कर, थरथराए भाव,
तन था नंगा, मन मगर, जैसे रहे ताव।
न देखी उत्तेजना, न ही स्पर्श काम,
तंत्र यही साधे जिसे, पा जाता विश्राम।।

आँखें अगर हो शरम की चादरों में,
नग्न तन भी लाज से झुक जाए दो में।
पर मन अगर हो विकारों से भरा जब,
वस्त्र हजारों भी न रोकें पाप का सब।।


मानव का जो त्रास है, सीधा कुछ न होय,
तंत्र का भी खेल अब, रस में लिपटा रोय।॥

काम की ऊर्जा बहुत, वेग में जब आए,
बिना दिशा के वह तभी, पथ भ्रष्ट बनाए।
रूप का सम्मोहन तब, आँखों में बस जाए,
फिर भले ही वस्त्र हों, मन कपड़े चुराए।।


साधना की राह पर जो चल सका है,
वह ही समझे नग्नता क्या फलदायी है।
भोग नहीं यह, साधना की एक सीढ़ी,
जहाँ निःस्पृह भाव में लहराए पीढ़ी।।


गुरु ने अंत में कहा, ध्यान रखो यह बात,
नग्न नहीं जो दिख रहा, नग्न वही जो ज्ञात।॥


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✨ भावार्थ:

नग्नता एक दृष्टि है, स्थिति नहीं।
जो तंत्र के मार्ग पर चल कर इंद्रियों पर सहज नियंत्रण पा ले, वही वास्तविक नग्नता को अनुभव कर सकता है।
शरीर नहीं, मन का निर्वस्त्र होना ही तंत्र की सच्ची परीक्षा है।


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