मैं ही चलूंगा


मुझे राह दिखा सकते हैं लोग,
संभाल सकते हैं, थाम सकते हैं हाथ,
मुझे प्रेम दे सकते हैं अपने शब्दों से,
पर मेरे भीतर का तूफ़ान —
उसे शांत करना केवल मेरा ही काम है।

क्योंकि बदलना है मुझे…
तो मैं ही बदलूंगा।
किसी और की चेतना
मेरे भीतर का अंधेरा रोशन नहीं कर सकती।
वे साथ चल सकते हैं,
पर मेरी आत्मा के गहरे द्वार को
मुझे ही खोलना होगा।

कई बार मैंने इंतज़ार किया —
कि पहले मैं तैयार हो जाऊँ,
सब कुछ स्पष्ट हो जाए,
फिर चलूँ उस दिशा में
जहाँ मेरी मुक्ति छुपी है।

पर समय ने मुझे समझाया —
कि रास्ता तभी प्रकट होता है,
जब मैं चलना शुरू करता हूँ।
जैसे अंधेरे में रखा पहला क़दम
कहीं न कहीं रोशनी को आमंत्रित करता है।

हाँ, डर लगता है…
कि क्या मैं गिर जाऊँगा?
क्या अकेला हो जाऊँगा?
क्या जो पीछे छोड़ आया हूँ,
वो ही सब कुछ था?

लेकिन फिर, एक आवाज़ भीतर से आई —
"चल… बस चल…"
रास्ता तुझसे मिलेगा,
तू उससे नहीं।

हर पड़ाव पर मैं टूटा,
पर वहीं मैंने खुद को पाया।
कभी आँसूओं में नहाया,
तो कभी मौन में मुस्कराया।
हर पीड़ा ने मेरी त्वचा से नहीं,
मेरे अहम से खाल उतारी।

और तब जाना —
कि जो मुझे सँभालते रहे अब तक,
वे मेरी छाया से लड़ नहीं सकते।
मुझे ही जलना होगा,
मुझे ही गलना होगा,
तभी सोना बनूंगा।

अब भी राह लंबी है…
पर अब मैं रुका नहीं हूँ।
क्योंकि जान चुका हूँ —
मुक्ति वहाँ नहीं जहाँ सब आसान हो,
बल्कि वहाँ है जहाँ मैं कठिनाई के बाद भी चलता रहूँ।

और इस यात्रा में,
मैंने अपने भीतर की वो शक्ति देखी है
जो किसी ग्रंथ में नहीं लिखी,
जो किसी और के शब्दों में नहीं समाई,
बल्कि जो मेरी ही हिम्मत की छाया में जन्मी।


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