अहम् की मूरत है क्या?
एक परछाईं, जो सच समझी जाती है,
पानी पर लकीरें खींचने का प्रयास,
जो बहने के साथ ही मिट जाती है।
मैंने देखा, साधु ने मेरा नाम लिया,
गांव की पगडंडी का चित्र खींचा,
नीम के पेड़ की शाखें गिनवाईं,
और मैं चमत्कृत हो उठा।
पर क्या यह धर्म का परिचय है?
या केवल कला का प्रदर्शन?
आत्मा तो मौन है,
सहज, सरल, निर्विकार।
उसका कोई नाम नहीं,
कोई गांव नहीं, कोई आकार नहीं।
वह तो सबके पार है,
जहां न चमत्कार है, न पहचान की लालसा।
साधु जो मेरे नाम पर खेला,
वह भी संसार के खेल में डूबा था।
अहम् का विस्तार कर,
मुझे अपने मोहजाल में लपेटा था।
अहम् का स्वभाव
अहम् चाहता है कि हर आंख मुझे देखे,
हर जुबां मेरा नाम पुकारे।
मैं सड़कों पर निकलूं,
लोग मेरी ओर ताकें।
अगर कोई न देखे,
तो मन का दर्पण चटक जाता है।
मैं हूं, पर मेरे अस्तित्व को पहचान न मिले,
यह अहंकार का सबसे बड़ा भय है।
अहम् को ध्यान चाहिए,
पर ध्यान देना नहीं आता।
वह चाहता है कि संसार उसे माने,
पर खुद को पहचानने से डरता है।
आत्मा का सत्य
आत्मा को पहचान की चाह नहीं,
न मान की भूख, न सम्मान का मोह।
वह तो मौन में खिलती है,
न कोई देखे, न सराहे,
फिर भी उसकी महक
समस्त अस्तित्व में फैलती है।
धर्म उसी आत्मा का पथ है,
जहां न नाम है, न पहचान।
जहां सत्य है, जहां शून्यता है,
जहां मैं और तुम का भेद मिट जाता है।
अहम् के जाल से बाहर
जब तक मैं दूसरों को प्रभावित करना चाहूं,
तब तक मैं खुद में नहीं हूं।
जो दूसरों के लिए जीता है,
वह अपने लिए मर चुका है।
अहम् को सजीव रखने के लिए,
दूसरों की निगाहों का भोजन चाहिए।
पर आत्मा को तो मौन चाहिए,
अकेलेपन का अमृत चाहिए।
साधु हो या जादूगर,
अगर वह चमत्कारी है,
तो समझो कि वह संसार में ही उलझा है।
धर्म तो निर्बंध है,
जहां कोई कला नहीं,
केवल समर्पण है।
अंतिम बोध
तो क्यों मैं दूसरों की निगाह का मोहताज बनूं?
क्यों उनके ध्यान से अपनी पहचान खोजूं?
ध्यान देना है तो भीतर देखूं,
जहां आत्मा का सत्य छिपा है।
अहम् तो केवल भ्रम का दीपक है,
जो जलता है, पर अंधकार देता है।
आत्मा वह सूर्य है,
जो बिना मांगे उजाला करता है।
संदेश यही है—
चमत्कारों पर मत रीझो,
अहम् को पहचानो, उसे विसर्जित करो।
आत्मा के मौन में डूबो,
जहां न मैं हूं, न तुम;
केवल सत्य है, केवल शांति।