"मैं" रूप में
तब कोई दिखावा नहीं था।
ना पर्फ़ेक्ट लुक्स,
ना ठीक-ठाक बाल,
ना स्माइल सुधारने की फ़िक्र।
बस थे —
टेढ़े-मेढ़े दाँत,
उलझे हुए बाल,
कपड़ों पर लगे दाग,
और दिल से निकली हँसी।
तब कोई ‘पिक्चर परफेक्ट’ नहीं चाहता था,
क्योंकि पल ही परफेक्ट होते थे।
खुशियाँ छुपी होती थीं
कंचों की थैली में,
या बिना वजह भागते दौड़ते
किसी गली के कोने में।
मैं मुस्कुराता था —
क्योंकि वाक़ई खुश था।
ना किसी को इम्प्रेस करना था,
ना लाइक बटोरने थे।
अब हँसी है —
पर सजी-सँवरी,
कभी ज़्यादा सोचकर,
कभी कैमरे के एंगल पर टिकी हुई।
पर वो हँसी जो टेढ़े दाँतों के बीच से
बिना इजाज़त झाँकती थी,
वो थी —
मेरी असली पहचान।
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