लड़ाई खुद से खुद की



मन के गहरे सागर में, जब सिधांत का तूफान उठे,
नैतिकता और आदत, द्वंद्व में जब दिल सहे।
मजबूर आदत से उठाए, फैसले हर रोज़,
खुद से होते हैं युद्ध, बिन तलवार के रोज़।

आदत की बेड़ियों में, जकड़ा मन का स्वर्णिम पंछी,
उड़ना चाहे आकाश में, पर ज़मीन से बंधा बिन शांति।
नैतिकता की राह पर, चलना है हर क़दम,
पर आदतें रोकती हैं, हर बार खींच के बंधन।

फैसले जो मजबूरी में, आदतों से बनते हैं,
वो अक्सर मन के आईने में, खुद को ही छलते हैं।
हर फैसले के बाद, आत्मा का युद्ध होता है,
खुद से खुद की ये लड़ाई, निरंतर चलती रहती है।

पर जब मन की आवाज़, नैतिकता को अपनाती है,
आदतों की बेड़ियाँ टूटतीं, आत्मा को राह दिखाती हैं।
खुद से खुद की ये लड़ाई, जीत का संदेश लाती है,
सिधांत की राह पर चलकर, हर मन विजयी बन जाती है।

इस संघर्ष की कहानी, हर दिल की आवाज़ है,
खुद से खुद की लड़ाई, असल में जीवन का अंदाज है।
नैतिकता और आदत, जब एकता में आ जाएं,
तभी सच्चा शांति और सुख, मन को मिल पाए।

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...