लेखक का कोई अवकाश नहीं होता,
उसकी साँसों में ही शब्द जन्म लेते हैं,
उसकी नींद में भी
वाक्य उगते हैं जैसे
अंधेरे में चमकते तारे।
वह जब चलता है,
तो पाँवों के निशान भी
कहानी बन जाते हैं।
जब खिड़की से बाहर देखता है,
तो पेड़ों की शाखाओं में
उपन्यास की कथाएँ झूलती हैं।
लेखक का अवकाश—
वह पंक्ति है जो अभी लिखी नहीं गई,
वह विचार है जो भीतर उमड़ रहा है,
वह स्मृति है जो शब्द बनने को
अधीर है।
“वाचो वै ब्रह्म” —
(वेद मंत्र)
वाणी ही ब्रह्म है।
और लेखक उस ब्रह्म का साधक,
शब्द का तपस्वी।
वह समुद्र की तरह है—
जिसकी हर लहर
एक नई कविता लेकर आती है।
वह दीपक की तरह है—
जो जलते हुए भी
अंधेरे को शब्द देता है।
उसका विश्राम—
वाक्यों के बीच की नीरवता में है।
उसका त्याग—
अपनी धड़कनों को काग़ज़ पर उतारने में है।
उसकी तपस्या—
हर बार खाली पन्ने से
एक नया ब्रह्मांड रचने में है।
“यत्र यत्र मनो याति तत् तत् लभ्यते कवि:”
(काव्य सूत्र)
जहाँ-जहाँ मन जाता है,
वहाँ-वहाँ कवि को कुछ मिल ही जाता है।
लेखक कहीं से भागता नहीं,
वह हर जगह उपस्थित है—
कभी प्रेम में कविता है,
कभी पीड़ा में कहानी,
कभी मौन में एक अघोषित गद्य।
लेखक का अवकाश वही है
जहाँ उसकी कलम रुकती है,
पर मन लिखता रहता है।
वह दुनिया से अलग नहीं,
बल्कि दुनिया को शब्दों में जीता है।
और उसकी थकान—
उसी क्षण मिटती है
जब कोई पाठक
उसके शब्दों में अपना चेहरा पहचान लेता है।
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