ब्रह्माण्डों की विविधता: भारतीय ऋषियों की दिव्य दृष्टि



जब आधुनिक विज्ञान ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझने के लिए प्रयासरत है, तब यह जानना आश्चर्यजनक है कि भारतीय ऋषियों ने अपने गहन ध्यान और समाधि के माध्यम से अनेक ब्रह्माण्डों और उनके प्राणियों का वर्णन बहुत पहले ही कर दिया था। वेदों, पुराणों और उपनिषदों में हमें ऐसे श्लोक और वर्णन मिलते हैं जो ब्रह्माण्ड की विविधता को अद्भुत तरीके से दर्शाते हैं।

संसार की सीमाओं से परे भारतीय ऋषियों का दृष्टिकोण

यूरोप जहां ब्रह्माण्ड की संरचना को लेकर भ्रांतियों और सीमित दृष्टिकोण में उलझा था, वहीं भारतीय ऋषि समाधि में लीन होकर करोड़ों ब्रह्माण्डों की स्पष्ट कल्पना कर चुके थे। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और अन्य प्राचीन ग्रंथों में हमें कई ब्रह्माण्डों का उल्लेख मिलता है जो एक दूसरे से भिन्न हैं।

> "अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक श्रीमहाविष्णो:"

(श्रीविष्णु अनन्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं।)



इस श्लोक में भगवान विष्णु को अनंत ब्रह्माण्डों का स्वामी बताया गया है। यह इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि भारतीय ऋषियों के अनुसार ब्रह्माण्ड केवल एक नहीं बल्कि अनगिनत हैं, और उन सभी की अपनी विशेषताएं हैं।

ब्रह्माण्डों की विविधता का वर्णन

मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि प्रत्येक ब्रह्माण्ड की अपनी विशेषता होती है। कुछ ब्रह्माण्ड समुद्र से भरे होते हैं, कुछ केवल पर्वतों से युक्त होते हैं, तो कुछ ब्रह्माण्ड पूर्णतया जीवन से खाली होते हैं। इस विषय में निम्नलिखित श्लोक हमारे ध्यान योग्य हैं:

> "केचिद्भिचित्रसर्गाः केचित्तूयमयान्तरा।
केचिदेकारणवापूर्णाः इतरः जनिवर्जिता।"
(मार्कण्डेय पुराण, अध्याय 26-29)



इसका अर्थ है कि कुछ ब्रह्माण्ड पशु-पक्षियों से भरे हुए हैं, कुछ समुद्रों से भरे हैं, और कुछ जीवन से पूर्णतः शून्य हैं। कुछ ब्रह्माण्डों में देवताओं का निवास है और कुछ में मानव एवं अन्य प्राणियों का।

यहाँ पर यह स्पष्ट होता है कि भारतीय ऋषियों की दृष्टि में हर ब्रह्माण्ड का एक अनोखा स्वभाव है और हर ब्रह्माण्ड के अपने-अपने नियम होते हैं।

वृक्ष का उदाहरण और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति

श्रीमद्भागवत और अन्य पुराणों में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और उसकी संरचना का वर्णन एक वृक्ष के रूप में किया गया है। इस उदाहरण में बताया गया है कि जैसे वृक्ष की शाखाएँ होती हैं, वैसे ही अनंत ब्रह्माण्ड हैं, जिनकी जड़ें एक ही मूल में स्थित हैं।

> "वृक्षवल्लीकजालेन केशवश्रुतिदृढं भूतलम्।
सह भूतैः सग्रामपुरवृत्तम् त्वचा।।"
(श्रीमद्भागवत, अध्याय 13-14)


इस श्लोक में ब्रह्माण्ड की विविधता को वृक्ष की शाखाओं के रूप में बताया गया है। कुछ ब्रह्माण्ड ऐसे हैं जिनमें देवताओं का निवास है, तो कुछ मानवों और प्राणियों से युक्त हैं।

समकालीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण और भारतीय परंपरा की समानता

आधुनिक वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड विज्ञान (कॉस्मोलॉजी) में भी यह मान्यता विकसित हो रही है कि एक से अधिक ब्रह्माण्ड हो सकते हैं, जिसे "मल्टीवर्स" (Multiverse) सिद्धांत कहा जाता है। भारतीय ऋषियों का यह दृष्टिकोण आज के वैज्ञानिक मतों से मेल खाता है।

भारतीय परंपरा में जो "अनेक ब्रह्माण्ड" की अवधारणा है, वह केवल दर्शन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैज्ञानिक दृष्टि से भी तार्किक है। हमारे ऋषियों का यह ज्ञान हमें यह समझने के लिए प्रेरित करता है कि सृष्टि के रहस्यों का अध्ययन केवल भौतिक प्रयोगों से नहीं, बल्कि आत्मा और मन के भीतर गहरे ध्यान और साधना से भी संभव है।

उपसंहार

भारतीय ऋषियों की ब्रह्माण्ड की यह विशाल दृष्टि न केवल उनकी आध्यात्मिक ऊँचाई को दर्शाती है, बल्कि हमें यह भी बताती है कि इस विशाल सृष्टि का अनुभव और अध्ययन उनके लिए केवल विचारों तक सीमित नहीं था। यह हमारे लिए एक प्रेरणा है कि हम अपने ज्ञान के क्षितिज को बढ़ाएं और आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से सत्य की खोज करें।

"यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे"

जैसे शरीर में संपूर्ण ब्रह्माण्ड का सार निहित है, वैसे ही इस असीम ब्रह्माण्ड में अनन्त रहस्य छिपे हैं। ऋषियों की दृष्टि से प्रेरणा लेते हुए, यह हमारा कर्तव्य है कि हम ज्ञान और ध्यान के माध्यम से इन रहस्यों को समझने का प्रयास करें।

मिथ्या संसार और उसकी वास्तविकता: एक नई दृष्टि



वर्तमान समय में जो संसार हमारे चारों ओर दिखाई देता है, वह हमारे सामूहिक विचारों और भावनाओं का ही प्रतिबिम्ब है। यह जगत जिस रूप में हमारे सामने उपस्थित है, वह भ्रष्ट राजनीति, विषैली खाद्य प्रणाली, और भ्रामक मीडिया जैसे तत्वों से निर्मित है, जो हमारे जीवन को विनाश की ओर ले जाते हैं। परंतु यह केवल हमारी सेवा, हमारे विश्वास और हमारी ऊर्जा पर आधारित है। जैसे ही हम इस व्यवस्था में अपनी शक्ति लगाना छोड़ देंगे, हम इसके प्रभाव से मुक्त हो सकेंगे।

"वैराग्य" - मुक्ति का पहला कदम

संस्कृत में कहा गया है: "संसार सागरमागत्य जन्तवः क्लेशकारिणम्।
संसार-बन्धनं मुक्त्वा सच्चिदानन्दं लभन्ते।"

अर्थात, यह संसार वास्तव में केवल दुःख और कष्ट का स्थान है। जब मनुष्य इस संसार से मुक्त होकर अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप का अनुभव करता है, तभी वह सच्चे आनन्द का अनुभव करता है।

आधुनिक समाज की मानसिकता में हमें जो दिखाया जा रहा है, वह समाज की बनाई हुई काल्पनिक धारणाएँ हैं। यह कल्पना कि राजनेताओं का वर्चस्व है, उद्योगों का नियंत्रण है, और मीडिया का संदेश ही सत्य है – ये सभी हमें दास बनाए रखने के साधन हैं। जैसे ही हम इस मिथ्या व्यवस्था के प्रति अपनी निष्ठा समाप्त करते हैं, वैसे ही हम स्वतंत्र हो जाते हैं। असल में, स्वतंत्रता का अनुभव तभी होता है जब हम इन काल्पनिक धारणाओं का बहिष्कार कर देते हैं।

"मायामोह" से परे वास्तविकता की अनुभूति

भारतीय दर्शन में 'माया' को एक भ्रम के रूप में माना गया है। इसी भ्रम में फंसे हुए, मनुष्य अपना सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ में समाप्त कर देता है। इस व्यवस्था को समझने के लिए गीता का एक श्लोक ध्यान में आता है:

"मायाध्याक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।"

अर्थात, इस संसार की समस्त गतिविधियाँ, प्रकृति के अधीन होती हैं, परंतु यह प्रभु की माया है जो इसे चलाती है। मनुष्य को यह पहचानना आवश्यक है कि यह संसार, जो वह देख रहा है, केवल भ्रम का एक रूप है और इसके पीछे जो शाश्वत सत्य है, वह प्रकाशमय चैतन्य है।

स्वतन्त्रता का अर्थ और "अपरिग्रह" का महत्त्व

जैसे ही मनुष्य इस तथ्य को समझ लेता है कि वह दास नहीं है, उसे स्वतन्त्रता का वास्तविक अनुभव होता है। 'अपरिग्रह' या बिना लोभ के जीवन यापन करना, भारतीय दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है। यह सिद्धांत हमें इस माया-निर्मित संसार से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है। केवल आत्मज्ञान और सत्य की खोज के द्वारा ही हम इस प्रणाली से मुक्त हो सकते हैं।

यह संसार मात्र एक झूठा आवरण है; वस्तुतः यहाँ कोई सरकार नहीं है, कोई औषधि-उद्योग नहीं है, और न ही कोई पशु-पोषण उद्योग। केवल असीम संभावनाओं का प्रकाश है, जो हमारे भीतर ही विद्यमान है। जैसे ही मनुष्य इस प्रकाश को पुनः पहचानता है, वह उस कृत्रिम संसार के प्रभाव से स्वतन्त्र हो जाता है, जो उसे जीवन भर एक झूठी वास्तविकता में जकड़े रखता है।

आत्म-स्मरण: मुक्ति की ओर प्रथम कदम

मुक्ति का प्रथम चरण है आत्म-स्मरण। जब हम यह पहचान लेते हैं कि हमारे भीतर दिव्यता का प्रकाश है, तब हम इस संसार की झूठी व्यवस्थाओं से मुक्त हो जाते हैं। जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है:

"सर्वं खल्विदं ब्रह्म"

अर्थात, जो कुछ भी इस संसार में है, वह ब्रह्म ही है। जब तक मनुष्य इस शाश्वत सत्य का अनुभव नहीं करता, तब तक वह इस झूठे संसार का दास बना रहेगा। इस प्रकाश की पुनः प्राप्ति ही हमारी मुक्ति का मार्ग है।

सत्य की पहचान कर, संसार के झूठे आवरण से ऊपर उठना ही 'वास्तविक स्वतंत्रता' है। यह स्वतंत्रता बाहरी बंधनों से नहीं, अपितु आत्मा के आंतरिक जागरण से प्राप्त होती है। केवल जब हम प्रकाश के प्रति सजग होते हैं, तब ही हम इस माया से मुक्ति पा सकते हैं।

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...