मिथ्या संसार और उसकी वास्तविकता: एक नई दृष्टि



वर्तमान समय में जो संसार हमारे चारों ओर दिखाई देता है, वह हमारे सामूहिक विचारों और भावनाओं का ही प्रतिबिम्ब है। यह जगत जिस रूप में हमारे सामने उपस्थित है, वह भ्रष्ट राजनीति, विषैली खाद्य प्रणाली, और भ्रामक मीडिया जैसे तत्वों से निर्मित है, जो हमारे जीवन को विनाश की ओर ले जाते हैं। परंतु यह केवल हमारी सेवा, हमारे विश्वास और हमारी ऊर्जा पर आधारित है। जैसे ही हम इस व्यवस्था में अपनी शक्ति लगाना छोड़ देंगे, हम इसके प्रभाव से मुक्त हो सकेंगे।

"वैराग्य" - मुक्ति का पहला कदम

संस्कृत में कहा गया है: "संसार सागरमागत्य जन्तवः क्लेशकारिणम्।
संसार-बन्धनं मुक्त्वा सच्चिदानन्दं लभन्ते।"

अर्थात, यह संसार वास्तव में केवल दुःख और कष्ट का स्थान है। जब मनुष्य इस संसार से मुक्त होकर अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप का अनुभव करता है, तभी वह सच्चे आनन्द का अनुभव करता है।

आधुनिक समाज की मानसिकता में हमें जो दिखाया जा रहा है, वह समाज की बनाई हुई काल्पनिक धारणाएँ हैं। यह कल्पना कि राजनेताओं का वर्चस्व है, उद्योगों का नियंत्रण है, और मीडिया का संदेश ही सत्य है – ये सभी हमें दास बनाए रखने के साधन हैं। जैसे ही हम इस मिथ्या व्यवस्था के प्रति अपनी निष्ठा समाप्त करते हैं, वैसे ही हम स्वतंत्र हो जाते हैं। असल में, स्वतंत्रता का अनुभव तभी होता है जब हम इन काल्पनिक धारणाओं का बहिष्कार कर देते हैं।

"मायामोह" से परे वास्तविकता की अनुभूति

भारतीय दर्शन में 'माया' को एक भ्रम के रूप में माना गया है। इसी भ्रम में फंसे हुए, मनुष्य अपना सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ में समाप्त कर देता है। इस व्यवस्था को समझने के लिए गीता का एक श्लोक ध्यान में आता है:

"मायाध्याक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।"

अर्थात, इस संसार की समस्त गतिविधियाँ, प्रकृति के अधीन होती हैं, परंतु यह प्रभु की माया है जो इसे चलाती है। मनुष्य को यह पहचानना आवश्यक है कि यह संसार, जो वह देख रहा है, केवल भ्रम का एक रूप है और इसके पीछे जो शाश्वत सत्य है, वह प्रकाशमय चैतन्य है।

स्वतन्त्रता का अर्थ और "अपरिग्रह" का महत्त्व

जैसे ही मनुष्य इस तथ्य को समझ लेता है कि वह दास नहीं है, उसे स्वतन्त्रता का वास्तविक अनुभव होता है। 'अपरिग्रह' या बिना लोभ के जीवन यापन करना, भारतीय दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है। यह सिद्धांत हमें इस माया-निर्मित संसार से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है। केवल आत्मज्ञान और सत्य की खोज के द्वारा ही हम इस प्रणाली से मुक्त हो सकते हैं।

यह संसार मात्र एक झूठा आवरण है; वस्तुतः यहाँ कोई सरकार नहीं है, कोई औषधि-उद्योग नहीं है, और न ही कोई पशु-पोषण उद्योग। केवल असीम संभावनाओं का प्रकाश है, जो हमारे भीतर ही विद्यमान है। जैसे ही मनुष्य इस प्रकाश को पुनः पहचानता है, वह उस कृत्रिम संसार के प्रभाव से स्वतन्त्र हो जाता है, जो उसे जीवन भर एक झूठी वास्तविकता में जकड़े रखता है।

आत्म-स्मरण: मुक्ति की ओर प्रथम कदम

मुक्ति का प्रथम चरण है आत्म-स्मरण। जब हम यह पहचान लेते हैं कि हमारे भीतर दिव्यता का प्रकाश है, तब हम इस संसार की झूठी व्यवस्थाओं से मुक्त हो जाते हैं। जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है:

"सर्वं खल्विदं ब्रह्म"

अर्थात, जो कुछ भी इस संसार में है, वह ब्रह्म ही है। जब तक मनुष्य इस शाश्वत सत्य का अनुभव नहीं करता, तब तक वह इस झूठे संसार का दास बना रहेगा। इस प्रकाश की पुनः प्राप्ति ही हमारी मुक्ति का मार्ग है।

सत्य की पहचान कर, संसार के झूठे आवरण से ऊपर उठना ही 'वास्तविक स्वतंत्रता' है। यह स्वतंत्रता बाहरी बंधनों से नहीं, अपितु आत्मा के आंतरिक जागरण से प्राप्त होती है। केवल जब हम प्रकाश के प्रति सजग होते हैं, तब ही हम इस माया से मुक्ति पा सकते हैं।

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