भलाई के सहारे बुरे हो, फिर भी न समझ पाओ।
झूठ बोलते हो, एक अच्छे कारण के लिए,
प्यार, सत्य, या दान की शरण में हो तुम कहीं।
"मैं झूठ बोल रहा हूं," तुम कहते हो,
"क्योंकि बचाना है किसी को, नहीं तो वह खो जाएगा।"
सत्य की शरण में, बुराई को तुम ढूंढते हो,
प्रेम की आड़ में, अपनी गलती को तुम सजा देते हो।
वो झूठ भी, सच के लिए ही बोला जाता है,
एक गलत रास्ता, अच्छे उद्देश्य के साथ जाता है।
लेकिन क्या कभी सोचा तुमने,
क्या झूठ भी सत्य में बदल सकता है?
तुम बुरा कर रहे हो, अच्छे कारणों के लिए,
क्या यह सच्चाई का मार्ग है, या एक भ्रम है?
भलाई की आड़ में बुराई का खेल,
क्या हम कभी समझ पाएंगे, इस दार्शनिक सवाल का हल?