मैं चलता हूं, इस संसार के रास्तों पर,
हर कदम पर मिलता है एक नया चेहरा,
कोई सर झुकाता, कोई मुस्कुराता,
कोई अनजाने में मुझे अनदेखा कर जाता।
अहंकार कहता है, "देखो, तुम बड़े हो,
तुम्हारे नाम पर उठते हैं ये नज़ारे,
लोग तुम्हें पहचानें, ये तुम्हारी जीत है,
तुम ही हो इस संसार के हक़दार।"
पर अंदर एक हलचल है, एक सवाल,
क्या यही मेरा सत्य है?
क्या यही मेरा धर्म?
क्या इन पहचानों में मेरी आत्मा का मर्म?
किसी साधु के पास गया मैं,
उसने मेरे भूत की कहानी सुनाई,
मेरा नाम, मेरा गांव, मेरा पेड़—
उसने मेरे अतीत को सामने रखा।
मैं चमत्कृत था,
जैसे किसी जादू ने मुझे छुआ हो,
पर आत्मा ने धीरे से पूछा,
"इस जादू में क्या पाया तूने?
क्या इससे तेरा सत्य खुला?"
सच तो यह है,
यह सब दुनिया की लकीरें हैं,
नीम का पेड़, गांव का नाम,
सब भ्रम के धागों से बुनी हुई जाल हैं।
अहंकार चाहता है,
लोग मुझे देखें, मुझे सराहें,
मेरी उपस्थिति का गान करें,
मेरी छवि को पूजें।
पर आत्मा?
वह तो बस मौन है,
ना उसे पहचान चाहिए,
ना उसे किसी का ध्यान।
अहंकार लकीरों पर जीता है,
जैसे पानी पर बनती रेखाएं,
हर पहचान एक लहर है,
जो क्षण भर में मिट जाती है।
पर मैं कौन हूं?
क्या मैं उन लहरों का मालिक हूं?
या मैं वह सागर हूं,
जो लहरों के परे भी है?
साधु भी जब तुम्हें प्रभावित करता है,
वह भी एक गहरी कला दिखाता है,
पर वह भी अहंकार का खेल है,
क्योंकि आत्मा को प्रदर्शन से क्या लेना।
सच तो यह है,
असली धर्म वह है,
जहां अहंकार की आवश्यकता नहीं,
जहां पहचान का मोह नहीं।
सारी दुनिया मुझे जाने, या अनजाने,
इससे मेरी आत्मा का कुछ नहीं बदलेगा,
क्योंकि वह सत्य है,
जो किसी पहचान का मोहताज नहीं।
मैं मौन में हूं,
जहां कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं,
जहां मैं सिर्फ हूं,
और वही मेरा धर्म है, मेरा सत्य है।