Friday 31 August 2018

प्रकृति का मुंड खराब है



देखो न जरा मौसम कितना खराब है
 सर्दियों के मौसम में गर्मी बेहिसाब है.
लगता है  ऐसा
 जैसे प्रकृति  का मुंड खराब है।

 नदी छलक रही है झरने बहक रहे हैं
मंद मंद प्रकाश खिल खिला रहा है
ना जाने क्यों हवाएं ने इतनी बेताब है
लगता है  ऐसा
 जैसे प्रकृति  का मुंड खराब है।

 दोपहरी धुप में वो छाँव नहीं है
जिसमे लेट कर कोई अपनी थकान मिटा पाए
अलसाई शामों में वो शुकुन नहीं है जो
मन में शांति लाये।
ना जाने क्यों अध लिखी हुई सी ये किताब है
लगता है  ऐसा
 जैसे प्रकृति  का मुंड खराब है.

 क्यारियों  में अब वो बात नहीं है
रूखी रूखी सी हरी से भूरी हुई ये घास है
मिट्टी  में वो खुसबू नहीं बस एक सड़ी से बास है
ना जाने क्यों मुरझाया हुआ ये गुलाब है
लगता है  ऐसा
 जैसे प्रकृति का मुंड खराब है

बिखरा बिखरा वो झरना है
जिसमे थी कभी कल कल धारा
न जल में वो  तेज वेग है
न  नहर में सफाई
 न खेत में फसल है और न सिंचाई
न जाने क्यों सूखा सूखा  ये आकाश  है
लगता है  ऐसा

 जैसे प्रकृति का मुंड खराब है

दीप जले तो जीवन खिले

अँधेरे में जब उम्मीदें मर जाएं, दुखों का पहाड़ जब मन को दबाए, तब एक दीप जले, जीवन में उजाला लाए, आशा की किरण जगमगाए। दीप जले तो जीवन खिले, खु...