प्रेम का नया रूप


मैंने प्रेम किया था,
बिना किसी डर के,
बिना किसी संदेह के।
मैंने अपना हृदय सौंप दिया था,
जैसे कोई नदी सागर में मिल जाती है,
बिना यह सोचे कि लौट पाएगी या नहीं।

पर समय ने मुझे सिखाया,
हर सागर गहरा नहीं होता,
हर किनारा अपना नहीं होता।
मैं टूटा, बिखरा,
और सोचा कि शायद अब प्रेम मेरे लिए नहीं।

पर अब मैं समझता हूँ—
प्रेम खोया नहीं, बस बदल गया।
अब मैं अपनी कोमलता को बचाता हूँ,
हर किसी के हाथों में नहीं रखता।
अब मैं अपने हृदय को उसी को देता हूँ,
जो उसे संभालने का हकदार हो।

मैंने मासूमियत खोई है,
पर समझदारी पाई है।
अब मैं फिर प्रेम करूंगा,
पर इस बार, अधिक बुद्धिमानी से।


टूटी मासूमियत


मैं याद करता हूँ वो दिन,
जब प्रेम बस प्रेम था—
न कोई भय, न कोई संदेह।
मैं बहता था उस धारा में,
पूरी तरह, बिना किनारे की चिंता किए।

पर फिर, दिल टूटा...
और उसके साथ, मेरा वह मासूम हिस्सा भी।
अब मैं जानता हूँ कि प्रेम सुंदर है,
पर साथ ही, यह खो देने का भय भी लाता है।

अब मैं उतना कोमल नहीं रहा,
वो निस्वार्थ समर्पण कहीं पीछे छूट गया।
अब मैं सोचता हूँ, रुकता हूँ,
हर कदम पर एक दीवार खड़ी कर देता हूँ।

काश, मैं फिर से उतना ही निर्दोष हो पाता,
फिर से उस प्रेम में डूब जाता,
बिना इस डर के कि मुझे बचना होगा,
बिना इस डर के कि फिर से टूटना होगा।


आधी-अधूरी आरज़ू

मैं दिखती हूँ, तू देखता है, तेरी प्यास ही मेरे श्रृंगार की राह बनती है। मैं संवरती हूँ, तू तड़पता है, तेरी तृष्णा ही मेरी पहचान गढ़ती है। मै...