अनसुनी दरारें



मैंने गिना हर शब्द, जैसे रेत के कण तपते सूरज में,  
तुम्हारी चुप्पी के समंदर ने सबको निगल लिया बिना छपके।  
जो सवाल मेरे होठों पे लटके थे फाँसी की रात की तरह,  
तुम्हारी आँखों में वो बस कोहरा थे—बिना इतिहास, बिना चेहरे।  

तुम्हारी हथेली पर मेरी धड़कनों के निशान बने थे,  
पर तुमने उन्हें हवा का झोंका समझकर झटक दिया।  
मेरी चुप्पी की गहराई में डूबी थी जो बेचैनी,  
तुम्हारे कानों तक पहुँची ही नहीं—वो एक नदी थी जो रेत में सो गई।  

मैंने सीखा है अब तारों को पढ़ना उन रातों में,  
जब तुम्हारी नींद मेरे सपनों के मलबे पे चलती है।  
तुम्हारे हर "हँस दो" में छुपा था जो एक खालीपन,  
मैंने उसे सिल दिया था अपनी साँसों के टाँकों से—पर तुम्हें याद है?  

कितनी बार मैंने तुम्हारे नाम की चिट्ठियाँ लिखीं हवा को,  
तुम्हारे दरवाज़े पे टँगी हवा ने उन्हें कभी नहीं खोला।  
मेरे अक्षर तुम्हारी दीवारों पे लगे पुराने पोस्टर की तरह,  
जिनकी चिपचिपाहट तक तुमने महसूस करना छोड़ दिया।  

तुम्हारी यादों के जंगल में मैं एक पेड़ हूँ—  
जिसकी जड़ें तुम्हारी नींद में कभी उगी ही नहीं।  
मेरी पत्तियाँ गिरती हैं तुम्हारे पैरों के पास,  
पर तुम उन्हें कुचलते हुए आगे बढ़ जाते हो... बिना शोर, बिना दर्द।  

मैं वहीँ खड़ा हूँ—उसी पल में जहाँ तुमने छोड़ा था,  
तुम्हारी रूह की घड़ी की सुईयाँ तो आगे भाग गईं।  
अब मेरे दिन तुम्हारी परछाई का इंतज़ार करते हैं,  
जो कभी आती ही नहीं... सिर्फ़ मिट्टी का एक ढेर है जो हवा हो गया।