मैं एक बार एक महिला से बात कर रहा था,
जब मैंने कहा, "ज़्यादातर महिलाएं रिश्तों में इस उम्मीद के साथ आती हैं,
कि वे अपने मुद्दों को शांति और प्यार से सुलझा लेंगी,
लेकिन ज़्यादातर पुरुषों का मानना होता है
कि उन्हें वैसा ही स्वीकार किया जाएगा जैसे वे हैं,
और वे बदलाव की कोई इच्छा नहीं रखते।"
वो महिला मेरी बात से सहमत थी ,
एक पल की खामोशी में उसकी आँखों में स्वीकृति थी।
शायद उसने भी अपनी राहें और रिश्तों की यह सच्चाई महसूस की थी।
कभी लगता है,
क्या यही असली फर्क है,
हमारे दृष्टिकोणों में,
हमारे अपेक्षाओं में,
और हमारी प्यार करने की क्षमता में?
क्या यह स्वीकार्यता है,
जो हमें एक-दूसरे से दूर कर देती है?
या फिर यह समझ है,
कि हर किसी को बदलने का अधिकार नहीं है,
बल्कि हर किसी को उसकी असलियत में अपनाना ही सच्चा प्यार है।
रिश्ते में बदलाव की चाहत
कभी मिलकर बढ़ती है,
कभी दो अलग-अलग दिशा में जाती है।
लेकिन जब दोनों एक-दूसरे को जैसा वह है वैसा स्वीकार कर लेते हैं,
तब शायद यही सच्चा समर्पण है।