वो असली ख़ुशी

 "मैं" रूप में

एक वक़्त था,
जब मैं सच में मानता था —
दुनिया अच्छी है।
हर चेहरा मुस्कुराहट लाता था,
हर दिन एक नई कहानी बनता था।

मैं तब इतना मासूम था,
कि दर्द का मतलब भी
खेल में हार जाना था
या रात को दूध ना मिलना।

वो वक़्त —
जब जो था, वो ही काफी था।
ना कुछ साबित करना,
ना किसी से आगे बढ़ना।
बस जीना… और खुश रहना।

मुझे याद है —
वो ख़ुशी सच्ची थी।
बिना किसी वजह के हँस लेना,
बिना डर के रो लेना,
हर एहसास को जिया था मैंने —
पूरी तरह, पूरी ईमानदारी से।

फिर ज़िंदगी आई…
अपने सवालों, संघर्षों,
और जवाबों के बोझ के साथ।
धीरे-धीरे भूल गया मैं —
वो कैसी लगती थी, असली ख़ुशी।

आज…
जब मुस्कराता हूँ,
तो दिल पूछता है —
क्या ये वही है?
या कोई नक़ाब?

काश…
मैं लौट पाता उस पल में,
जहाँ दुनिया अच्छी थी,
और मैं —
सिर्फ़ एक बच्चा,
जिसे जीना आता था।


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