मैं सोचता हूँ, मैं हूँ एक अच्छा इंसान,
मेरे कर्म, मेरी बातें, सब हैं महान।
दूसरों को सिखाना, यह मेरा काम है,
क्या मैं सच में उस पर खरा उतरता हूँ, या बस दिखावा है?
मैं दूसरों की मदद करने में रहता हूँ व्यस्त,
पर क्या कभी अपने भीतर झांकने की कोशिश की है मैंने?
क्या अपने आंतरिक संघर्षों को मैंने समझा है,
या बस दूसरों को बेहतर बनाने की चाहत में खुद को भुलाया है?
सच तो यह है, मैं कभी नहीं जान पाया,
जो दिखता है बाहर, वो भीतर से कितना भिन्न होता है।
मैं अपने अहंकार में बंधा हुआ था,
"मैं अच्छा हूँ," यही सोचकर खुद को धोखा देता था।
जब मैं कहता हूँ कि मैं सच्चा हूँ,
क्या मैंने कभी खुद से यह सवाल पूछा?
कभी किसी का दिल दुखाया तो नहीं,
क्या मेरी अच्छाई सिर्फ दिखावा है, या सच्चाई है?
मैं यह समझता हूँ कि अच्छाई दिखाने से बढ़ती है,
पर क्या असल अच्छाई अंदर से उपजती है?
मैं क्या अपने दोषों को स्वीकारने का साहस रखता हूँ?
या बस दूसरों को सही राह दिखाकर खुद को श्रेष्ठ मानता हूँ?
आज मैं यह समझता हूँ, सबसे बड़ा अहंकार है,
"मैं अच्छा इंसान हूँ," यह सोचना।
सच्ची अच्छाई तो तब है, जब मैं खुद को मिटा दूँ,
तभी समझ पाऊँगा कि असली अच्छाई क्या है।