पाप और धर्म का चक्र



पाप से बचने को पाप रचूँ,
छल से अपने पथ को सजूँ।
पर पाप की छाया में ही,
फिर-फिर मैं भटकूँ, उलझूँ।

धर्म छुपे जब मन के कोने,
अधर्म ही फिर गीत सुनाए।
पर सत्य छिपता कब तक भला,
धर्म पुकारे, वापस आए।

मैंने जब भी धर्म को त्यागा,
पापों ने आकर मुझको बाँधा।
पर जब भीतर दीप जलाया,
धर्म सखा बन, पास में आ खड़ा।

यह चक्र अनादि, यह चक्र अनंत,
मनुज रहे इसमें सदैव लिप्त।
पर जिसे मिला अंतःप्रकाश,
वह पा गया मोक्ष का द्वार।