मेरी लटें न रूकीं, न बंधीं,
हवा संग झूमें, लहरों संग गूंजीं।
बाँधने चले थे जो रस्सियों से,
वो थककर खुद ही ठहर गए।
जैसे मेरी जुल्फ़ें नहीं क़ैद होतीं,
वैसे ही मेरा मन भी ना रुका।
सोच की सीमाएँ तोड़ चला,
वक़्त के पहरों को पार गया।
संसार के बंधन, नियमों के जाल,
कोई कैसे रोके इस उड़ान को?
मैं धूप में बिखरी किरणों सी,
हर दिशा में फैलती पहचान को।
कभी न थमी, कभी न झुकी,
लहरों की भाषा में बह चली।
जिसे पकड़ना चाहा हाथों ने,
वो रेत की तरह फिसल चली।
मैं वही हूँ—
जो न बालों को बाँध सकी,
न आत्मा को जकड़ सकी।
मैं वही हूँ—
जो मुक्त हुई, बिखरी, और फिर भी पूरी रही।