(कविता — “मैं” के स्वर में)
तब जो ख़ुशी थी,
वो असली थी —
ना किसी टूटे दिल ने उसे छुआ था,
ना किसी मातम ने उसे हिलाया था।
टेढ़ी-मेढ़ी सी वो हँसी —
जैसे एक कविता बिना किसी व्याकरण के,
फिर भी सबसे सुंदर।
तब आँखों में कोई सवाल नहीं थे,
ना खुद को साबित करने की होड़।
जो था —
बस एक साफ़-सुथरी दुनिया,
जहाँ हर मुस्कान में सच्चाई बसती थी।
अब चेहरों पर हँसी है,
पर पीछे कितनी थकावट है।
अब मुस्कुराते हैं हम —
पर किसी कैमरे, किसी वजह, किसी मजबूरी के लिए।
काश फिर से
वो टेढ़े दाँतों वाली मासूम हँसी लौट आए,
जो कमाल की दिखती थी —
क्योंकि वो सच होती थी।