कौन हूँ मैं? 2



जन्म लिया जब इस धरा पर, क्या था मेरा कोई नाम?
ना था धर्म, ना जाति कोई, ना था कोई अभिमान।
श्वेत पटल सा निर्मल मन, शून्य में मैं खोया था,
सच की तलाश में तब से ही, उस अद्वैत में सोया था।

सत्यं शिवं सुंदरम् — यही थी मेरी पहचान,
ना कोई सीमा, ना कोई बंधन, सिर्फ प्रेम का प्रमाण।
माता-पिता का था आँचल, और धरती माँ का संग,
बिना किसी रूप-रेखा के, बस था अदृश्य सा रंग।

तब से लगा कि ये जो नाम, धर्म, और जाति का जाल,
केवल एक भ्रम है ये, ये बुनती हैं मानव की चाल।
अहं ब्रह्मास्मि की ध्वनि, जैसे गूंज रही अंतर्मन में,
परिचय छूटता चला गया, जीवन के इस यथार्थ क्षण में।

आज जब खुद को देखता हूँ, परतों में ढके हुए,
नहीं हूँ वो जो दिखता हूँ, बस अदृश्य में छुपे हुए।
जाति, धर्म, और पहचान के सब भ्रमों को तोड़ता,
अपने असली स्वरूप में, सत्य को मैं जोड़ता।

कभी सोचता हूँ, क्या ये सब भौतिकता का भ्रम है?
आत्मा तो मुक्त है, सर्वं खल्विदं ब्रह्म का ही परम है।
तो क्यों मैं कैद हूँ इन सीमाओं में, इस मायावी संसार में,
जो जन्म में न था, आज क्यों मेरे अस्तित्व का आधार बने?

यत्र विश्वं भवति एक नीड़म्, यही है मेरा ध्येय,
ना कोई भेद, ना कोई बंधन, केवल प्रेम का नित्य ये श्रेय।
जाति-धर्म के पार चलूँ, इस सीमाओं से मुक्त होऊँ,
अमृत की उस धार में, सत्य से साक्षात्कार करूँ।

सच तो यही है कि मैं बस हूँ, इस अद्वितीय ब्रह्म का अंश,
मुक्ति के उस पथ पर चलूँ, जहाँ ना कोई भेद, ना कोई बंधन।
जब जन्म लिया, तब जो था, वही मेरा परम सत्य है,
बाकी सब माया का आवरण है, जो बदलता रहता क्षण क्षण।

ॐ तत् सत्


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...