अनकही बातें: देवों से संवाद



जब मैं देवताओं से करता हूँ वार्ता,
मन में उठती है एक शुद्ध वंदना।
पत्तों की सरसराहट, हवाओं की गाथा,
हर कण में सुनाई देती ब्रह्म की कथा।

"सर्वं खल्विदं ब्रह्म"
(छांदोग्य उपनिषद् 3.14.1)
हर श्वास, हर ध्वनि, हर स्पंदन,
ब्रह्म के रूप में है मेरा चंदन।

प्रकृति का आलाप

पत्तियाँ झुककर करतीं अभिवादन,
हर फूल कहता है अपनी कहानी।
नदियों की कल-कल, पहाड़ों की गर्जना,
इनसे गूँजती मेरी आत्मा की तानें पुरानी।

समुद्र का सागर

व्हेल से बातें, मरमेड की पुकार,
उनकी लहरों में जीवन का सार।
समुद्र की गहराई मुझे समेटे,
जहाँ हर आवाज़ एक मंत्र गुनगुनाए।

जीव-जंतुओं की दुनिया

कीटों की फुसफुसाहट, चिड़ियों की चहचहाहट,
इनसे सीखता हूँ प्रेम का पाठ।
उनकी छोटी दुनिया, पर बड़ी बातें,
मानव से अधिक, मुझे ये समझाते।

मनुष्यों से दूरी

मनुष्यों के शब्द, कठोर और तीखे,
हृदय से दूर, बस स्वार्थ के मीखे।
उनसे वार्ता में खोती है आत्मा,
बातें हों पर अर्थ खो जाए निष्ठा।

अंतिम प्रार्थना

हे देव, पेड़, जीव और सागर,
तुम ही मेरे सहचर, तुम ही मेरे पथ के साक्षी।
मनुष्य की भीड़ में खोने न देना,
प्रकृति का संवाद कभी रुकने न देना।

"अहं वृष्टिरस्मि जीवोऽहमस्मि।
सर्वं मयि प्रतिष्ठितं यतोऽहम्।"
(यजुर्वेद)
अर्थात, "मैं ही वर्षा हूँ, मैं ही जीवन हूँ।
सब मुझमें है और मैं सबमें।"

यह संवाद है मेरा, यह जीवन की धारा है,
देवों, जीवों और प्रकृति संग प्रेम हमारा है।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...