जब आई पहली साँस मेरी, तब तो था मैं शुद्ध, निर्दोष,
ना था कोई बंधन, ना था मोह, बस था मैं प्रकृति का संतोष।
कोई नाम नहीं, कोई पहचान नहीं, बस जीवन का एक अंश,
जन्म और मृत्यु के इस चक्र में, अद्वितीय आत्मा का प्रतिबिंब।
फिर क्यों समय के साथ-साथ, मैं बँधता गया इन बंधनों में?
जाति, धर्म, और पहचान के इस भारी आवरण में?
क्यों ये नाम, ये रिश्ते, ये पहचान मेरे साथ जुड़ गए,
और मेरे भीतर का अहं ब्रह्मास्मि का स्वर दब सा गया?
तत् त्वम् असि — ये ज्ञान तो जन्म से ही है मुझमें,
पर क्यों मैं भूला, क्यों अंधकार ने मुझे घेर लिया?
क्यों इन मानवीय सीमाओं में मैंने खुद को खो दिया,
सत्य का सूरज ढल गया, माया का आवरण बुन गया।
आज जब मैं देखता हूँ अपने भीतर, परतों को हटाता हूँ,
एक नई रोशनी में, सत्य का मार्ग दिख जाता है।
जाति का गर्व, धर्म का अभिमान, सब धुंधले से लगते हैं,
मैं तो बस अंश हूँ उस परमात्मा का, जो सृष्टि में समाहित है।
आत्मा न जायते म्रियते वा कदाचित् — ये शाश्वत सत्य है,
ना मैं जन्मा, ना मरूँगा, ये माया का पाश है।
मैं वही हूँ जो इस क्षण के पार, उस अनंत में बसा है,
जो नाम, रूप, और जाति के भ्रमों से परे, बस प्रेम का एक बसा है।
हर धर्म में, हर जाति में, वही एक चेतना का अंश,
फिर क्यों मैं बँध जाऊँ इन सीमाओं में, जो सत्य से दूर हैं?
ना कोई हिन्दू, ना मुसलमान, ना कोई अमीर, ना गरीब,
बस आत्मा का अनंत प्रवाह, जो इन जंजीरों से हो स्वतंत्र।
इस आत्मा की खोज में, जब बंधन सब टूट जाएँगे,
मैं फिर वही होऊँगा, जो जन्म के क्षण में था।
ना नाम, ना जाति, ना कोई धर्म, बस एक शून्य का भाव,
जहाँ से मैं निकला था, वहीं मैं लौट आऊँगा — एक शुद्ध, निर्विकार।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते
जो पूर्ण से उत्पन्न है, वही मेरा सत्य है।
और ये जो पहचान का आवरण है, ये तो माया का खेल है,
मेरा असली स्वरूप तो उसी पूर्णता में समाहित है।
तो चलो, इन सीमाओं से बाहर निकल चलें,
सत्य के उस अनंत मार्ग पर जहाँ कोई बंधन न हो।
जहाँ मैं हूँ, तुम हो, और हम सब एक ही ब्रह्म के अंश हैं,
सर्वं खल्विदं ब्रह्म — यही जीवन का सच्चा स्पंदन है।