सलाह और अपमान का द्वंद्व



सलाहें दी जाती हैं, पर क्या हम सच में समझते हैं?
क्या यह सचमुच मदद है, या एक निंदा का रूप है?
कभी सोचा है, हर सलाह के पीछे क्या छिपा होता है?
यह अक्सर अपमान का एक तरीका बन जाता है।

जब तुम सलाह देते हो,
तो क्या तुम यह साबित करने की कोशिश करते हो
कि तुम्हें सब कुछ आता है,
और सामने वाले को कुछ भी नहीं पता?
तुम्हारा सलाह देना,
जैसे एक गुप्त आक्रोश है,
कि तुम जानकार हो और वह अज्ञानी,
तुम खुद को ऊंचा मानते हो,
और दूसरों को नीचा दिखाते हो।

सलाहें कभी मददगार नहीं होतीं,
जब वे खुद को श्रेष्ठ साबित करने की हो,
जब वे बिना किसी समझ के दी जाती हैं,
और बिना सामने वाले की स्थिति समझे जाते हैं।
सलाहें कभी नहीं होतीं,
जब उनका मकसद सिर्फ यह हो कि
तुम खुद को दीन-हीन दिखाओ और सामने वाले को असहाय।

इसलिए सलाहें एक खतरनाक खेल होती हैं,
जो रिश्तों में दरारें डाल देती हैं,
जो आत्म-सम्मान को चोट पहुंचाती हैं,
जो भ्रम और उपहास पैदा करती हैं।
यह "मैं जानता हूं, तुम नहीं जानते" का हठ है,
यह एक ऐसा पर्दा है,
जो दिखाता नहीं, बल्कि छिपाता है सच्चाई।

वास्तव में, सलाह वह है,
जो बिना किसी अहंकार और आत्म-प्रशंसा के दी जाए,
जो बिना किसी के ज्ञान को नीचा किए,
बस एक साथी की तरह समझ और सहारा बने।
सलाह देने की कला में आत्म-गौरव नहीं,
बल्कि दूसरों की स्थिति को समझने की गहरी समझ होनी चाहिए।

तो अगली बार जब तुम सलाह दो,
यह सोचो कि तुम्हारी सलाह सहारा है या अपमान?
क्या तुम उसे मार्गदर्शन दे रहे हो,
या बस उसे नीचा दिखा रहे हो?
सलाह का उद्देश्य कभी स्वयं को ऊंचा करना नहीं होना चाहिए,
बल्कि यह होना चाहिए, एक दूसरे की मदद करना,
ताकि हम सब साथ बढ़ सकें,
कभी भी अपमान के बिना।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...