मैं भी उन मूर्खों में था,
जो उत्तरों की तलाश में भटकता रहा।
हर जवाब एक दरवाज़ा खोलता,
पर उस दरवाज़े के पार—और भी सवाल मिलते।
मैंने सोचा, कोई तो रौशनी होगी,
कोई तो शब्द मुझे शांति देगा।
पर हर उत्तर ने एक नया अंधेरा दिया,
और हर विचार ने मन को और उलझा दिया।
"केवल मूर्ख ही प्रश्न करते हैं,"
मैंने सुना किसी बुद्ध पुरुष की वाणी।
"उत्तर नहीं देंगे समाधान,
वे तो बस प्रश्नों की नयी कहानी।"
फिर मैं चुप हो गया एक दिन,
ना प्रश्न, ना उत्तर, ना कोई चर्चा।
बस शून्य में बैठा रहा,
जहाँ न मैं था, न मेरा कोई पथ।
वहीं पहली बार कुछ घटा—
ना शब्दों में, ना भावों में,
पर एक शांति सी उतरी,
जो न प्रश्नों की थी, न उत्तरों की।
अब मैं जान गया हूँ,
प्रश्नों का अंत प्रश्नों में नहीं,
बल्कि मौन की उस गहराई में है
जहाँ विचार भी सिर झुकाते हैं।