मैं हूँ, बस यह जानने की चाह,
मुझे बनाती है इस जग का राजा।
हर निगाह मुझे खोजे, हर दिल मुझे पहचाने,
पर इस चाह में, आत्मा कहीं खो जाए।
कहीं कोई साधु कहे, तुम्हारा नाम, तुम्हारा गांव,
और मैं, उसके शब्दों से हो जाऊं चकित।
पर वह साधु, क्या जानता है मेरा सत्य?
या फिर बस खेलता है कला का एक और नाटक?
नीम के पेड़ की छांव से,
क्या साधु की आत्मा ऊंची हो जाती है?
या फिर मेरी जड़ता पर, वह अपनी कला दिखाता है।
पर आत्मा तो उन जड़ों से परे है,
जहां न नाम है, न गांव, न पहचान।
मैं सोचता हूँ, क्यों चाह है मुझे पहचान की?
क्यों हर निगाह मुझे खोजे, हर आवाज मुझे पुकारे?
यह चाह, मेरा अहंकार है,
जो जीता है दूसरे की स्वीकृति पर।
क्या होगा अगर दस लाख लोग मुझे देखें?
क्या होगा अगर दस करोड़ मेरा नाम गाएं?
परंतु, इन आवाज़ों के बीच,
क्या मेरी आत्मा मुझसे बात कर पाएगी?
अहंकार पानी पर खींची लकीर है,
जो दिखती तो है, पर रहती नहीं।
दूसरों की पहचान की भूख,
मुझे मेरे सत्य से दूर ले जाती है।
अहंकार कहता है, "दुनिया देखे मुझे,
मैं सबका केंद्र बनूं, हर दिल का राजा।"
पर आत्मा कहती है, "तू बस शांत रह,
अपने भीतर झांक, और सत्य को पहचान।"
ध्यान जहां है, वहीं सत्य है,
पर अहंकार ध्यान नहीं करता,
वह बस चाहता है कि दुनिया उसे देखे।
यह अजीब है, यह विरोधाभास है,
कि जो भीतर से शून्य है,
वह बाहर से सब कुछ चाहता है।
साधु हो, राजा हो, या साधारण आदमी,
अगर दूसरों को प्रभावित करने की चाह है,
तो तू आत्मस्थ नहीं है।
तू बस खेल रहा है अपने अहंकार का खेल।
मैं अब चाह नहीं रखता,
कि कोई मुझे देखे, मुझे पहचाने।
मैं बस शांत हूँ, अपने भीतर।
जहां कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं।
बस आत्मा का सत्य है,
जो हर पहचान से परे है।
अब मैं उस पानी पर खींची लकीर नहीं,
जो हर लहर में मिट जाए।
मैं अब सागर हूँ, जो गहराई में स्थिर है।
जहां न चाह है, न पहचान।
बस मैं हूँ।