मन का आँगन



मन का आँगन, एक पवित्र धाम,
यह नहीं किसी का कूड़ा-घर, नहीं कोई थाम।
जहाँ सपने बुनते हैं, विचार करते परवाज़,
वहाँ क्यों सहें किसी और का बेकाम बोझ?

लोग आते हैं, अपनी बातें सुनाते हैं,
कुछ तारीफ, कुछ ताने, कुछ शिकायत छोड़ जाते हैं।
पर सोचो, क्या यह सब रखना जरूरी है?
क्या हर बात को मन में बसाना जरूरी है?

मन का द्वार खोलो, पर समझ से,
हर बात को न दो जगह अपने घर के बसने।
जो सही हो, जो सुंदर हो, उसे अपनाओ,
बाकी को हवा में उड़ाओ।

अपना मन बनाओ एक निर्मल झरना,
जहाँ बस बहें खुशी और स्नेह का गीत-तरना।
जहाँ न घुटे नकारात्मकता का शोर,
बस गूंजे सृजन का मधुर सुर-झकोर।

याद रखो, तुम्हारा मन तुम्हारी ज़िम्मेदारी है,
किसी का कूड़ा यहाँ न आने पाए, यह तैयारी है।
साफ रखो इसे, सजाओ इसे,
अपने मन को मंदिर बनाओ इसे।

क्योंकि जो बोओगे, वही पाओगे,
अपने मन को दुनिया का सबसे सुंदर आँगन बनाओगे।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...