अस्तित्व का मूल प्रश्न



जन्मते त्वं शून्यतायां, बिना नाम रूपेण।
तू न हिंदू, न मुसलमान, न जाति का बंधन तुझ पर।
 बस था तेरा शुद्ध अस्तित्व, जो सीमाओं से मुक्त था।


अस्मिन जगति त्वं निराकारः, शून्यं स्वयम् अवस्थितः धर्मो न ते जाति, न ते वर्णो, न राष्ट्रस्य तीक्ष्णता।
 ब्रह्म स्वरूपमस्ति त्वं, न तत्र जाति न तत्र धर्मः

काल के प्रवाह में बंधा, मानव ने किए बंधनों के जाल। कभी नाम, कभी धर्म, कभी पेशा, पर मन रहा तेरे बिन विसाल।
पर हर बंधन के पीछे छिपा है, वही निर्मल, असीम सत्य।

"अहम् ब्रह्मास्मि" ध्वनि से स्पंदित, तू है एक शाश्वत राग। क्यों भूला तू उस मूल को, जिसे कभी पाया ही नहीं था भेद।
 तू तो बस एक ज्वाला है, जिसे न नाम की जरूरत है, न रंग की।

विवेक-ध्यान से देख अपना स्व, वहाँ न कोई सीमा का भाव है।
जाति-धर्म सब झूठे मुखौटे, जो तुझे बाँध न सकेंगे।
 अनंत का तू एक अंश है, मुक्त-निर्मल, अपरिचित सत्य।


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