वृक्ष का दुःख, जीव का क्रंदन


यदि तुम समझ पाते,
वृक्ष की शाखों में बहते उस दर्द को,
जो हर कटाव पर चीखता है,
पत्तियों के सन्नाटे में सिसकता है।

यदि सुन पाते तुम,
पशुओं की मौन पुकार को,
जो लहूलुहान होती है,
उनकी निरीह आँखों की करुणा में।

यदि तुम देख पाते,
धरती की छाती पर किए गए घावों को,
जो हर हलचल पर चटकती है,
नदियों के आंसुओं में बहती है।

तो शायद रुक जाते,
हर उस वार से,
जो तुम्हारे सुख के लिए,
किसी का जीवन चुरा लेता है।

यह जगत एक देह है,
और हम इसके अंग।
अगर तुम अपने दर्द को जानते हो,
तो क्यों नहीं जानते इस सृष्टि का भी दुःख?

संवेदनशील बनो,
हर कण में जीवन है,
हर कण में दर्द है।
जो वृक्ष का है, वही तुम्हारा भी।
जो पशु का है, वही तुम्हारे भीतर भी।

आओ, संकल्प लें,
सृष्टि की हर साँस को संजोने का।
क्योंकि जब वृक्ष हरे रहेंगे,
तभी तुम्हारी श्वास भी गूंजेगी।
जब पशु स्वच्छंद रहेंगे,
तभी तुम्हारा मन भी शांत रहेगा।


मातृदेवो भव।

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