काग़ज़ का जादू



काग़ज़ के टुकड़े, स्याही का खेल,
न सोने के, न चाँदी के ढेल।
पर दुनिया इन पर मरती है,
रोटियाँ तक इनसे चलती हैं!

बाज़ार में जो भी चाहो, ले लो,
बस जेब में कुछ नोट भर लो।
साबुन, साड़ी, समोसे, समंदर,
सब बिकते हैं, बस काग़ज़ सँभालो अंदर!

अजीब तमाशा, अजब है खेल,
गरीब तरसें, अमीर ठेल!
कुछ नहीं तो बैंक में देखो,
काग़ज़ ही काग़ज़, पर पैसा बोले!

और मज़ा तो देखो प्यारे,
चोरी भी हो तो नोट ही मारे!
सेब नहीं, दुकान नहीं,
नोट उड़ा लो, मियाँ बड़े महान सही!

सोचो ज़रा, क्या पागलपन!
काग़ज़ के पीछे इतना हवन?
जो असली चीज़ चाहिए,
वो नहीं, हमें तो बस नोट चाहिए!

— दीपक दोभाल



संस्कारहीन सनातन





संस्कार बिना, शव है सनातन,
पूजा-अर्चा, सब व्यर्थ समान।
बाहर रक्षा, भीतर शून्य,
कैसा यह भ्रम, कैसा अपमान?

अंतर की जोत बुझे जब,
मंत्रों का क्या शेष रहेगा?
बाह्य आडंबर, रीति-रिवाज़,
मन में सत्य न प्रवेश करेगा।

धर्म नहीं बस ग्रंथों की बातें,
धर्म नहीं बस व्रत-उपवास।
धर्म वही जो जिया जाए,
हर श्वास में हो उसका वास।

हम बचाते देह, आत्मा खोकर,
मूर्तियों में प्राण नहीं।
संस्कृति जब शेष रहेगी केवल,
अतीत की एक कहानी बनकर,
तब कौन कहेगा— "हम सनातनी हैं!"

— दीपक दोभाल




आधी-अधूरी आरज़ू

मैं दिखती हूँ, तू देखता है, तेरी प्यास ही मेरे श्रृंगार की राह बनती है। मैं संवरती हूँ, तू तड़पता है, तेरी तृष्णा ही मेरी पहचान गढ़ती है। मै...