संस्कार बिना, शव है सनातन,
पूजा-अर्चा, सब व्यर्थ समान।
बाहर रक्षा, भीतर शून्य,
कैसा यह भ्रम, कैसा अपमान?
अंतर की जोत बुझे जब,
मंत्रों का क्या शेष रहेगा?
बाह्य आडंबर, रीति-रिवाज़,
मन में सत्य न प्रवेश करेगा।
धर्म नहीं बस ग्रंथों की बातें,
धर्म नहीं बस व्रत-उपवास।
धर्म वही जो जिया जाए,
हर श्वास में हो उसका वास।
हम बचाते देह, आत्मा खोकर,
मूर्तियों में प्राण नहीं।
संस्कृति जब शेष रहेगी केवल,
अतीत की एक कहानी बनकर,
तब कौन कहेगा— "हम सनातनी हैं!"
— दीपक दोभाल
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