Parwah

    परवाह
परवाह  है उस ख्याल की
जो बोया था बचपन में कहीं
आज वो ख्याल ख्वाबों में अंकुरित हो कर
फूट रहा है मिट्टी  से 
परवाह है उसके कुचल जाने की
परवाह  है उस ख्याल की
जो बोया था बचपन में कहीं |

परवाह ही उसके उजड़ जाने की
जब  गर्भ में ही  दो धारी तलवार से उस  ख्वाब
पर वार की जाये
तब जन्म दे कर उस ख्वाब को पाल पोसकर
रोशन किया जाये
परवाह है उस रोशनी की
जो लाने वाली है नयी सहर यहीं
पर वाह है उस ख्याल की 
जो बोया था छुटपन में कहीं  |

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...