कौन हूँ मैं? 4



जन्म के उस पहले क्षण में, क्या कोई परिचय था मेरा?
ना कोई नाम, ना कोई चेहरा, ना ही कोई निशान ठहरा।
बस एक आत्मा का कण था, इस जग में जो आया,
मुक्त, निराकार, शुद्ध, जैसे अम्बर में हो समाया।

पर तब से धीरे-धीरे ये संसार ने लपेटा मुझे,
नाम, जाति, और धर्म के रेशों में जकड़ लिया मुझे।
असतो मा सद्गमय — अंतर्मन की ये पुकार,
असत्य से सत्य की ओर, मुझे खींचता बार-बार।

बचपन में थे कुछ सपने, जीवन के निश्छल रंग,
लेकिन समाज की परतों में, खो गया वो अनछुआ संग।
एक देश, एक धर्म, एक जाति का ले लिया मैंने नाम,
सच का वो स्वरूप था पीछे, बस मृगतृष्णा में था भ्रमित ये धाम।

कभी मन में सवाल उठता, कौन हूँ मैं वास्तव में?
क्या ये सब पहचानें, सचमुच हैं मेरे अस्तित्व में?
सोऽहम् — यह ध्यान मुझे शून्यता की ओर बुलाता है,
जहाँ ना कोई रूप है, ना कोई नाम, ना कोई परिभाषा बताता है।

क्या है ये धर्म, ये जाति, ये समाज का बंधन?
केवल मेरे भीतर की शांति को है एक कठोर मंथन।
बाहरी पहचान के जाल में फँसा हूँ कबसे,
लेकिन भीतर कहीं आज भी हूँ उसी सत्य की ही तलाश में।

वास्तविकता तो यही है कि मैं असीम, अनन्त हूँ,
अहं आत्मा गुहाशयः — उस गहरे अंतर में स्थित हूँ।
जाति और धर्म के इन बंधनों से दूर,
सिर्फ आत्मा का हूँ, वही है मेरा असली सुरूर।

तो क्यों मैं इस सीमितता में बाँधूँ खुद को बार-बार?
जब मेरा मूल सत्य है अनन्त, पूर्ण और अपार।
सिर्फ वही सत्य है, बाकी सब भ्रम का आवरण,
जब मिटेगा यह आवरण, तब ही होगा सच्चा जीवन।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म — सबमें तो है वही आत्मा का स्वर,
ना कोई भेद, ना कोई भिन्नता, बस प्रेम का ही है संभार।
इस सत्य को समझूँ, इस माया से पार होऊँ,
अपने मूल रूप में, आत्मा का एहसास फिर से पाऊँ।

इस अंतहीन यात्रा में, मुझे मिलना है अपने आप से,
जहाँ ना नाम, ना रूप, बस शून्यता में खुद को पाऊँ स्नेह से।
मुक्त होकर इस माया से, सत्य का अनुभव करूँ,
कि मैं हूँ, सिर्फ हूँ, बस शाश्वत आत्मा का हूँ कण।

ॐ शांति शांति शांति — इस पथ पर चले चलूँ,
जहाँ ना कोई नाम, ना पहचान, बस आत्मा का मूल रूप मैं अपनाऊँ।
बस वही है मेरा सत्य, वही है मेरा परम धाम,
कि जन्म में जो मैं था, वही हूँ, वही मेरा नाम।


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