महानता का मूल चरित्र



महानता न बुद्धि का वरदान है,
न तीव्र मस्तिष्क का कोई प्रमाण है।
यह तो हृदय की गहराइयों से उपजती,
चरित्र की मिट्टी में धीरे-धीरे ढलती।

बुद्धिमत्ता चमकती है पल भर के लिए,
पर चरित्र स्थायी है युगों-युगों तक।
सफलता तो क्षणिक झोंका है हवा का,
पर चरित्र वह दीप है जो कभी न बुझा।

सच्चा चरित्र नहीं बनता सुख के रंगों से,
यह तो तपता है दुख के अंगारों में।
हर आँसू जो गिरा, वह बीज बना,
हर पीड़ा ने व्यक्ति को महान किया।

जो टूटे हैं, वही समझते हैं दर्द का सार,
उनकी सहानुभूति में छिपा है संसार।
जो अंधेरों से गुज़रे, वही प्रकाश लाए,
जो गिरे, वही उठने का साहस दिखाए।

चरित्र निखरता है संघर्षों के बीच,
जहां सपने टूटते हैं, और इरादे सींच।
जहां हर हार एक सबक बन जाए,
जहां हर चोट आत्मा को गढ़ जाए।

बुद्धिमत्ता तो बनाती है योजनाएँ बड़ी,
पर चरित्र देता है उन्हें आत्मा नई।
वह सत्य, करुणा और धैर्य सिखाता है,
जीवन को मानवीयता से भर जाता है।

तो मत गर्व करो केवल अपने ज्ञान पर,
नहीं है यह महानता का आधार।
महान वही, जो दुख से बना है अमर,
जिसका चरित्र है धैर्य, सत्य और विचार।

याद रखो, चरित्र की अग्नि से गुजरना,
हीरे को चमक देने जैसा है सुंदर।
और महानता वही, जो चरित्र से बहे,
जो इंसान को इंसान बना कर रहे।


कौन हूँ मैं? 4



जन्म के उस पहले क्षण में, क्या कोई परिचय था मेरा?
ना कोई नाम, ना कोई चेहरा, ना ही कोई निशान ठहरा।
बस एक आत्मा का कण था, इस जग में जो आया,
मुक्त, निराकार, शुद्ध, जैसे अम्बर में हो समाया।

पर तब से धीरे-धीरे ये संसार ने लपेटा मुझे,
नाम, जाति, और धर्म के रेशों में जकड़ लिया मुझे।
असतो मा सद्गमय — अंतर्मन की ये पुकार,
असत्य से सत्य की ओर, मुझे खींचता बार-बार।

बचपन में थे कुछ सपने, जीवन के निश्छल रंग,
लेकिन समाज की परतों में, खो गया वो अनछुआ संग।
एक देश, एक धर्म, एक जाति का ले लिया मैंने नाम,
सच का वो स्वरूप था पीछे, बस मृगतृष्णा में था भ्रमित ये धाम।

कभी मन में सवाल उठता, कौन हूँ मैं वास्तव में?
क्या ये सब पहचानें, सचमुच हैं मेरे अस्तित्व में?
सोऽहम् — यह ध्यान मुझे शून्यता की ओर बुलाता है,
जहाँ ना कोई रूप है, ना कोई नाम, ना कोई परिभाषा बताता है।

क्या है ये धर्म, ये जाति, ये समाज का बंधन?
केवल मेरे भीतर की शांति को है एक कठोर मंथन।
बाहरी पहचान के जाल में फँसा हूँ कबसे,
लेकिन भीतर कहीं आज भी हूँ उसी सत्य की ही तलाश में।

वास्तविकता तो यही है कि मैं असीम, अनन्त हूँ,
अहं आत्मा गुहाशयः — उस गहरे अंतर में स्थित हूँ।
जाति और धर्म के इन बंधनों से दूर,
सिर्फ आत्मा का हूँ, वही है मेरा असली सुरूर।

तो क्यों मैं इस सीमितता में बाँधूँ खुद को बार-बार?
जब मेरा मूल सत्य है अनन्त, पूर्ण और अपार।
सिर्फ वही सत्य है, बाकी सब भ्रम का आवरण,
जब मिटेगा यह आवरण, तब ही होगा सच्चा जीवन।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म — सबमें तो है वही आत्मा का स्वर,
ना कोई भेद, ना कोई भिन्नता, बस प्रेम का ही है संभार।
इस सत्य को समझूँ, इस माया से पार होऊँ,
अपने मूल रूप में, आत्मा का एहसास फिर से पाऊँ।

इस अंतहीन यात्रा में, मुझे मिलना है अपने आप से,
जहाँ ना नाम, ना रूप, बस शून्यता में खुद को पाऊँ स्नेह से।
मुक्त होकर इस माया से, सत्य का अनुभव करूँ,
कि मैं हूँ, सिर्फ हूँ, बस शाश्वत आत्मा का हूँ कण।

ॐ शांति शांति शांति — इस पथ पर चले चलूँ,
जहाँ ना कोई नाम, ना पहचान, बस आत्मा का मूल रूप मैं अपनाऊँ।
बस वही है मेरा सत्य, वही है मेरा परम धाम,
कि जन्म में जो मैं था, वही हूँ, वही मेरा नाम।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...