मैं, जो अच्छा कहलाता, मैं, जो बुरा कहलाता,
मैं सत्य का अंश, मैं मिथ्या का नाता।
दो ध्रुवों के बीच, मेरा अस्तित्व छिपा,
मैं ही प्रकाश, मैं ही छाया में लिपटा।
अच्छाई और बुराई, बस नाम के धोखे,
एक ही सत्य के दो पहलू, ये अनोखे।
जैसे दिन और रात, मिलते हैं सागर के तट पर,
वैसे ही मैं खड़ा, द्वैत की इस पट पर।
मैं रचता हूँ अंधकार, मैं गढ़ता हूँ प्रकाश,
मैं ही गहराई, मैं ही हूँ आकाश।
मुझमें झगड़े का बीज, मुझमें शांति का गीत,
मैं ही सृष्टि का अंत, मैं ही सृष्टि की रीति।
न कोई पूर्ण अच्छा, न कोई पूर्ण बुरा,
मैं ही संतुलन, जिसमें सत्य बसा।
द्वैत से परे, मैं अद्वैत का सन्देश,
मैं हूँ परछाई, और मैं ही प्रकाश का आदेश।
"अच्छा-बुरा, सब मेरा ही खेल,
एक ही सत्य का, मैं हूँ पूरा मेल।"