(— "मैं" रूप में)
मेरे बचपन की तस्वीरें,
कभी-कभी हँसी आती है देख कर।
कानों तक मुस्कान,
और बाल जैसे पंखे की पत्तियाँ,
कपड़े बेहिसाब बेतरतीब,
फिर भी वो चेहरे —
सच बोलते थे।
ना कोई फ़िल्टर, ना पोज़ का भार,
ना कैमरे से डर, ना दिखावे की मार।
जिस दिन रोया, रोया खुल कर,
जिस दिन हँसा —
उस हँसी में खुदा था।
मैं जानता हूँ,
वो फोटो शायद "अच्छी" ना हो,
पर उसमें जो ‘मैं’ था —
वो सच्चा था, मासूम था,
बिना नक़ाब के।
अब तस्वीरें साफ़ हैं,
चेहरे निखरे हैं,
पर वो मुस्कानें कहीं खो गई हैं।
अब कैमरे से पहले
चेहरे बनते हैं, दिल नहीं।
काश फिर से खींची जाए
एक वो ही तस्वीर,
जहाँ मैं दिखूं —
जैसा हूँ,
और हँसी हो —
जैसी तब थी,
झूठ से परे,
सच की सबसे प्यारी तस्वीर।
— मैं, एक पुरानी फोटो से झाँकता हुआ