Tuesday 30 October 2018

बाज़ार

बनते बिगड़ते रिश्तों की कहानी
बयां करती है जिंदगी
जिंदगी तू भी न जाने
अभी और क्या दिखाने वाली है
कैसा था मैं कैसे तूने बना दिया
न जाने कैसा आगे बनाने वाला हूँ
निशानियां है कुछ पास मेरे उसकी
जी चुभी थी तीर सी सीने में
जख्मों  पर क्यारी बो कर
हरा भरा किया है मैंने
मरहमों पर मिष्ठान लगा कर
 स्वादिस्ट किया  है मैंने
अंगारों को राख बना कर
मिटटी में मिला दिया है मैंने
कैसा  था ख्वाब है जिसमे अधूरे ख्याल है
अधूरी सी पहचान है
पहचान की ही तू दूकान है
फट्टे हाल की मेरी दूकान
न ग्रहाक है न सामान  है
 पर  बाज़ार में बैठा हूँ
बाज़ार मुझमे है  पर
मैं बाज़ार नहीं हूँ

दीप जले तो जीवन खिले

अँधेरे में जब उम्मीदें मर जाएं, दुखों का पहाड़ जब मन को दबाए, तब एक दीप जले, जीवन में उजाला लाए, आशा की किरण जगमगाए। दीप जले तो जीवन खिले, खु...