प्रेम का दिव्य स्वरूप





प्रेम न बंधन, न आकर्षण, न कोई चाहत,
यह तो आत्मा की गहराई में बहती करुणा की आहट।
न स्वामित्व की भूख, न इच्छाओं की माला,
बस ईश्वर से मिलने की एक निर्मल ज्वाला।

यह न कभी कुछ माँगे, न बदले में कुछ पाए,
बस प्रेम की धारा में अनंत बहता जाए।
मनुष्यों ने इसे स्वार्थ में उलझा दिया,
अपनी वासनाओं का जाल इस पर बिछा दिया।

फिर भी, जब पहली बार प्रेम का स्पर्श हो,
तो आत्मा में कुछ दिव्यता प्रकट हो।
क्षण भर को स्वयं को भूल जाता है मन,
बस शुद्धता में डूबता जाता है जीवन।

हे माधव! हे नारायण! यह कैसी लीला रची,
जहाँ प्रेम स्वार्थ में बंधकर भी अमृत सम बची।
तेरे चरणों में ही इसका सत्य रूप मिले,
जहाँ आत्मा से आत्मा का मिलन खिले।


---


आधी-अधूरी आरज़ू

मैं दिखती हूँ, तू देखता है, तेरी प्यास ही मेरे श्रृंगार की राह बनती है। मैं संवरती हूँ, तू तड़पता है, तेरी तृष्णा ही मेरी पहचान गढ़ती है। मै...